Breaking News

आवश्यक सूचना: प्रदेश जागरण के सभी निर्गत परिचय पत्र निरस्त किये जा चुके हैं | अगस्त 2022 के बाद के मिलने या दिखने वाले परिचय पत्र फर्जी माने जाएंगे |

जनादेश का सही संदेश

16_03_2017-15surya_prakashउत्तर प्रदेश में भाजपा की अप्रत्याशित जीत और तीन अन्य राज्यों में उसके प्रभावी प्रदर्शन ने राजनीतिक और चुनाव विश्लेषकों को चकित कर दिया है। अधिकांश राजनीतिक पंडित, चुनावी विश्लेषक अपने चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों में और यहां तक कि तमाम एक्जिट पोल तक में इस अविस्मरणीय चुनावी संघर्ष के अंतिम परिणामों का सही अंदाजा नहीं लगा पाए। निष्पक्षता मुख्यधारा के मीडिया यानी प्रिंट एवं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की पहचान है, लेकिन इस चुनाव में मीडिया भी अपनी साख से समझौता करता नजर आया। इसकी एक प्रमुख वजह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के प्रति पूर्वाग्रह और नकारात्मकता का भाव है। इन दिनों देश में अधिकांश विश्लेषक और आलोचक हर चीज को तथाकथित धर्मनिरपेक्षता और हिंदू सांप्रदायिकता के चश्मे से देखने के आदी हो गए हैं। वे हर बार वही घिसा-पिटा तर्क प्रस्तुत करते हैं। उनकी धारणा के अनुसार भारतीय राजनीति में नेहरूवादी और नेहरूवादियों की पीठ पर सवार वामपंथी ही अच्छे लोग होते हैं। उनके अनुसार राष्ट्रवादी मानसिकता के लोग बुरे होते हैं और जो लोग क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व करते हैं वे बर्दाश्त करने और जरूरत पड़ने पर जोड़-तोड़ कर इस्तेमाल करने के लिए होते हैं। नेहरूवादी और मार्क्‍सवादी स्कूल ने मीडिया खासकर अंग्रेजी मीडिया, शिक्षाविदों और नौकरशाही को पिछले सत्तर सालों से पूरी तरह अपनी गिरफ्त में ले रखा है। वे अक्सर नेहरूवादी और मार्क्‍सवादी स्कूल के विचारों को ही आगे बढ़ते हैं। जो लोग इस स्कूल को नहीं मानते हैं या भिन्न मत रखते हैं उनके साथ वे अछूत की तरह व्यवहार करते हैं।
आमतौर पर अधिकांश मीडिया चुनावी लड़ाई को सेक्युलर और हिंदू सांप्रदायिक ताकतों के बीच महायुद्ध के रूप में देखता है। चुनावों को अलग नजरिये से देखना उसे गवारा नहीं होता। उत्तर प्रदेश के नतीजे दिखाते हैं कि यह वर्ग किस कदर गलत साबित हुआ। आम जनता के रुख से स्पष्ट है कि वह तथाकथित सेक्युलर दलों को न तो सेक्युलर मानती है और न ही मोदी और उनकी पार्टी को हिंदू सांप्रदायिक समझती है। वास्तव में यह लड़ाई प्रतिगामी ताकतों जैसे कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी और देश को विकास की नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने की बात करने वाले नरेंद्र मोदी के बीच थी। चुनावी रैलियों में कांग्रेस, सपा, बसपा जहां पुराने दौर के विभाजनकारी नारों से प्रहार कर रहे थे वहीं प्रधानमंत्री मोदी युवा और आकांक्षी वर्ग को नए भारत की तस्वीर दिखा रहे थे। जिसमें पारदर्शिता और सबके लिए समान अवसर सुनिश्चित करना उनका मूल मंत्र था। नोटबंदी के मामले में भी मीडिया का यह वर्ग गलत साबित हुआ। गरीब घंटों लाइन में खड़े रहे फिर भी उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी का समर्थन किया। मीडिया का एक वर्ग यह कभी देख नहीं पाया। इसने पिछले दो वर्षों के दौरान उज्ज्वला, जन-धन और गरीबों के लिए समर्पित बीमा योजना के पारदर्शी और ईमानदार क्रियान्वयन को भी नजरअंदाज कर दिया, जबकि इन योजनाओं ने पूरे देश में गरीबों के दिलों-दिमाग को गहराई तक छुआ है। हालांकि यहां कोई मोदी की तुलना इंदिरा गांधी से कर सकता है। इंदिरा ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा दिया था, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उनके पास कोई ठोस योजना नहीं थी। जाहिर है कि अब यह तुलना बंद होनी चाहिए, क्योंकि अपने विचारों को मूर्त रूप देने की मोदी की क्षमता अतुलनीय है। इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और फर्जी ऋण मेलों के जरिये जनता के पैसे को लुटाया जिसमें लाभार्थी प्राय: कांग्रेसी कार्यकर्ता ही थे, जबकि मोदी विलक्षण तरीके से 25 करोड़ गरीब जनता के बैंक खाते खोलने में सफल रहे।
मोदी ने चुनावी रैलियों में सिर्फ उन विकासवादी नीतियों की बात की जिसका लाभ सभी को मिलेगा। इसमें जाति, पंथ, लिंग, क्षेत्र और धर्म आड़े नहीं आएंगे। चूंकि मीडिया के एक वर्ग को चुनावों को सांप्रदायिक या जातिगत चश्मे से देखने की ही आदत है लिहाजा उसने यह मानने से इन्कार कर दिया कि प्रधानमंत्री सबसे बड़े सेक्युलर एजेंडे यानी विकास के नाम पर वोट मांग रहे थे। मोदी ने इसका उल्लेख नतीजों के बाद पार्टी कार्यालय में अपने संबोधन के दौरान भी किया। उन्होंने कहा कि मीडिया यह अंदाजा लगाने में विफल रहा कि भाजपा ने यह जीत विकास के एजेंडे पर हासिल की है। मोदी तब एक स्टेट्समैन यानी राजनेता से भी बड़े नजर आए जब उन्होंने पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि सरकार बनती है बहुमत से, लेकिन चलती है सर्वमत से। सरकार सबके लिए होती है। जिन्होंने वोट दिया उनके लिए भी और जिन्होंने वोट नहीं दिया उनके लिए भी। क्या आपने मोदी से पहले किसी राष्ट्रीय नेता के मुंह से चुनावी राजनीति और गवर्नेंस यानी शासन के बीच के अंतर को इस तरह आसान शब्दों में जनता के समक्ष रखते हुए कभी सुना है?
उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, मणिपुर और इसके पहले ओडिशा एवं महाराष्ट्र (जहां हाल में पंचायत और नगर निगम के चुनाव संपन्न हुए) के चुनावों से कई महत्वपूर्ण संदेश निकल रहे हैं। अब यह स्पष्ट है कि जनता नरेंद्र मोदी को एक निर्णायक नेता के रूप में देखती है जो कड़े फैसले कर सकते हैं और एक मजबूत और एकीकृत भारत का निर्माण कर सकते हैं। जनता देश में उभर रही विभाजनकारी प्रवृत्तियों को लेकर चिंतित है। यही नहीं वह देश की एकता-अखंडता को कमजोर करने की कोशिश कर रहे एक वर्ग को कांग्रेस और वामपंथी तत्वों से मिल रहे समर्थन को लेकर भी असहज है। नई दिल्ली और पश्चिम बंगाल के विश्वविद्यालयों में लगे देश विरोधी नारों सहित कुछ अजीब घटनाओं ने अधिकांश भारतीयों को भीतर तक झकझोर दिया है। वे यह समझ नहीं पा रहे हैं कि आखिर कैसे राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियों के नेता कश्मीरी उग्रवादियों और अलगाववादी नारों का समर्थन कर सकते हैं। धार्मिक अल्पसंख्यकों का अभद्र तुष्टीकरण और कई क्षेत्रीय और जाति आधारित पार्टियों की अत्यंत खतरनाक और विभाजनकारी राजनीति भी उन्हें परेशान करने लगी है।
वास्तव में जिस अस्थिर गठबंधन सरकार की अगुआई मनमोहन सिंह ने दस वर्षों तक की उसके झटकों से देश अभी पूरी तरह उबर नहीं पाया है। संप्रग के कार्यकाल की राजनीति ने देश को न सिर्फ कमजोर किया, बल्कि स्वयं शासन करने की उसकी क्षमता को भी संदेह के घेरे
में ला दिया। कुल मिलाकर तीन दशक की गलतियों के बाद जनता एक मजबूत, निर्णायक और देश को एकजुट रखने वाले नेता के नेतृत्व में अखिल भारतीय पार्टी के पक्ष में खड़ी दिख रही है। जाहिर है अब देश का मिजाज डांवाडोल गठबंधन और सांप्रदायिक राजनीति के अलावा विश्वासघाती ताकतों को प्रोत्साहित करने वाली विभाजनकारी ताकतों के खिलाफ प्रतीत हो रहा है। लोगों को यह लगता है कि इन सबसे देश को एक ही नेता छुटकारा दिला सकता है और उसका नाम है नरेंद्र मोदी।

Leave a Reply

Your email address will not be published.