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चीन को पाक से दूर करने का वक्त

यह अच्छा ही हुआ कि डोकलाम विवाद टल गया और भारत और चीन, दोनों ने अपनी-अपनी सेनाएं वापस बुला लीं। जो लोग जोश में बढ़ चढ़कर सरकार को यह समझा रहे थे कि चीन को सबक सीखा देना चाहिए, मैं ऐसे लोगों के विचारों से कतई सहमत नहीं हूं। सबसे पहले तो किसी भी देश से युद्ध अपने आप में एक घातक कदम होता है। युद्ध के बाद उस देश की अर्थव्यवस्था तबाह हो जाती है और उसका खामियाजा उसके नागरिकों को भुगतना पड़ता है।

आज तक कोई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री युद्ध के बाद के बाद हुए चुनाव में सत्ता हासिल नहीं कर पाया। चाहे वह सीनियर बुश हों जिन्होंने इराक में हमला बोला या फिर 1971 के बाद इंदिरा गांधी। हर एक युद्ध के बाद, हर देश की अर्थव्यवस्था इतनी चौपट हो जाती है कि उसे संभाल पाना उस सरकार के लिए मुश्किल हो जाता है। चीन से युद्ध तो और भी घातक परिकल्पना है। यह सही है कि 1962 के मुकाबले पिछले 55 सालों में हम भी मजबूत हुए हैं, लेकिन चीन हमसे कई गुना ज्यादा मजबूत है। आज उसकी अर्थव्यवस्था अमेरिका से ज्यादा बड़ी है। उसके पास सैन्य साजो-सामान और आर्थिक क्षमता कई गुना ज्यादा है। उससे युद्ध यदि भारत के किसी फायदे में हो तो सोचा जा सकता है, लेकिन भूटान की जमीन के लिए अपनी नाक अड़ा कर उससे भिड़ जाना और युद्ध तक स्थिति को पहुंचा देना समझदारी की बात नहीं थी। मैं भारतीय कूटनीतिज्ञों, विदेश मंत्रालय के अफसरों की सराहना करना चाहूंगा कि उन्होंने समय रहते स्थिति को भांपकर इस टकराव को टाल दिया। भारतीय मीडिया का एक वर्ग और चीनी मीडिया तो पूरी तरह आमादा थे कि कैसे टकराव को बढ़ावा जाए। चीन से तो रोज ही बढ़-चढ़कर बयान आ रहे थे।

एक दिन तो दोनों ओर के सैनिकों में पत्थरबाजी भी हो गई, लेकिन विदेश सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार और चीन में हमारे राजदूत गोखले ने स्थिति की नजाकत को भांपते हुए एक रास्ता निकाला। चीन भी ब्रिक्स सम्मेलन को लेकर समझौते के पक्ष में था इसलिए उसने भी भारत की रखी शर्त को मान लिया। सबसे पहले भारत को यह तय करना पड़ेगा कि पाकिस्तान और चीन में किससे खतरा ज्यादा है? पाकिस्तान तो बहुत चालाकी से यह चाह रहा है कि भारत से चीन को भिड़ा दे। पाकिस्तान को पता है कि वह भारत से किसी भी मायने में न तो जीत सकता है और न ही बराबरी कर सकता है। इसलिए उसकी यही चाहत थी कि भारत और चीन की ठन जाए और दोनों में युद्ध हो जाए। वह इसमें ही अपना फायदा देख रहा था। उसके हिसाब से तो सांप भी मरता और लाठी भी नहीं टूटती। हमें पाकिस्तान के बुने जाल में नहीं फंसना चाहिए। उलटे हमें चीन से ऐसे रिश्ते रखने चाहिए ताकि वह पाकिस्तान से अपनी नजदीकी का मोह छोड़े। 

सबको मालूम है कि आज चीन और पाकिस्तान का जो रिश्ता है वह वैसा ही है जैसा पहले अमेरिका और पाकिस्तान का होता था। अमेरिका एक समय पाकिस्तान को हरसंभव मदद देता था। 1985 में राजीव गांधी ने वाशिंगटन यात्रा के बाद अमेरिका से रिश्ते ठीक करने शुरू किए और उसके बाद पीवी नरसिंह राव और अटल बिहारी वाजपेयी ने इसे और आगे बढ़ाया। वाजपेयी जी ने क्लिंटन के साथ विशेष रिश्ता कायम करके भारत-अमेरिका को नजदीक लाने का सफल प्रयास किया। उस दौरान तीन लोगों की खास भूमिका रही। ये हैैं जसवंत सिंह, नरेश चंद्रा और स्ट्रोव टालबोट। बाद में मनमोहन सिंह ने भी परमाणु करार के जरिये इसे और पुख्ता कर दिया। उनके बाद नरेंद्र मोदी ने भी इसी नीति को आगे बढ़ाया और आज हालत यह है कि अमेरिका पाकिस्तान को सुधर जाने की चेतावनी दे रहा है। इससे खिसियाया पाकिस्तान अमेरिका के खिलाफ जमकर बयानबाजी कर रहा है और वहां की जनता अमेरिका के खिलाफ प्रदर्शन कर रही है। हमें चीन के साथ भी कूटनीतिक रूप से कुछ ऐसा ही करना चाहिए कि वह पाकिस्तान के साथ अपनी जरूरत से ज्यादा मित्रता को कम करे और भारत से मित्रता को और बढ़ाए। चीन ने खुद को व्यापारी देश में ढाल लिया है। उसके लिए व्यापार महत्वपूर्ण है। वह भी युद्ध जैसी चीजों में फंसकर अपना वक्त और पैसा बर्बाद नहीं करना चाहता है। भारत से बढ़िया व्यापारिक मित्र उसे कौन मिल सकता है। बशर्ते वह साफ दिल से भारत को गले लगाए और सीमा विवाद को ठंडे बस्ते में डाल दे।

पिछले दिनों संसद में विदेश नीति पर अपने भाषण में मैंने यही कहा था कि वन बेल्ट-वन रोड सम्मेलन में भारत को जाकर अपनी बात रखनी चाहिए थी। उसका बहिष्कार नहीं करना चाहिए था, क्योंकि बांग्लादेश, नेपाल सभी उसमें शामिल हुए थे। भारत इस सम्मेलन में जाकर भी सीपैक यानी चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का विरोध कर सकता था। हमें इस गलियारे को समर्थन नहीं देना चाहिए। हमें तो वन बेल्ट-वन रोड के उतने हिस्से का लाभ लेना चाहिए जिसमें हमें फायदा हो। यदि हम विरोध नहीं करेंगे तो चीन तो अपना काम पूरा करेगा ही और इसके चलते पाकिस्तान से और नजदीक होगा। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने इसका अलग अर्थ निकाल कर मेरे बयान को संसद में मुद्दा बनाया और कहा कि मैं चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे का समर्थन कर रहा हूं। मेरा मकसद वन बेल्ट-वन रोड के सम्मेलन में अपनी बात रखने से था। सोचिए यदि भारत एक ऐसा देश बन जाए जिसके रिश्ते अमेरिका से भी अच्छे हों और रूस के साथ-साथ चीन से भी अच्छे हों तो आम जनता को कितना फायदा मिलेगा, इसका अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। 

होशियार कूटनीतिज्ञ सबसे रिश्ते अच्छे बनाकर फायदा लेता है, न कि युद्ध की आग में कूदकर अपने आप को जलाता है। चीन से युद्ध का परिणाम कुछ भी होता, लेकिन उसके बाद अर्थव्यवस्था में आग लग जाती। 500 रुपये लीटर पेट्रोल-डीजल होता। अनाज, खानेपीने का सामान और अन्य वस्तुओं की कीमतें आसमान छू जातीं। जीडीपी गिरकर दो प्रतिशत रह जाती। भयानक बेरोजगारी होती, सीमाओं पर क्या होता, इसका भी सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। इसलिए यह अच्छा ही हुआ कि समय रहते भारत और चीन दोनों ने कूटनीति और समझदारी का परिचय देते हुए इस टकराव को टाल लिया और उन लोगों के बहकावे में नहीं आए जो फर्जी जोश दिलाकर जंग में कूदने को उकसा रहे थे। ब्रिक्स सम्मेलन एक महत्वपूर्ण आर्थिक मंच है, जहां हमें चीन को पाकिस्तान से अलग करने का काम करना चाहिए। देश की सुरक्षा और आर्थिक मजबूती के लिए हमें ऐसे कदम उठाने ही चाहिए।

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