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गुम हुए विकास के मसले

26_02_2017-25sanjay_guptaउत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के चार चरण पूरे हो चुके हैं और पांचवें चरण के मतदान की तैयारी है। इस तैयारी के बीच राजनीतिक दलों में आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला और तेज होता जा रहा है। विकास और जनहित के मसलों के साथ शुरू हुआ चुनाव प्रचार एक-दूसरे का उपहास उड़ाने और यहां तक कि बेतुके बयानों तक पहुंच गया। हद तब हो गई जब एक-दूसरे पर निशाना साधने के क्रम में गधों तक का जिक्र होने लगा। मुख्यमंत्री अखिलेश ने प्रधानमंत्री मोदी पर हमला करने के लिए अमिताभ बच्चन के एक विज्ञापन का उल्लेख करते हुए जिस तरह यह कहा कि सदी के महानायक को गुजरात के गधों का प्रचार नहीं करना चाहिए उसकी उम्मीद नहीं की जाती थी, लेकिन सच यह भी है कि एक-दूसरे पर हमला करने में कोई पीछे नहीं रहा। भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने कांग्रेस, सपा और बसपा को कसाब की संज्ञा दी तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री को गब्बर सिंह बताया। इसी तरह बसपा प्रमुख मायावती ने नरेंद्र मोदी के नाम की व्याख्या दलित विरोधी व्यक्ति के रूप में की। उन्होंने अमित शाह को भी कसाब जैसा बताया। इस आरोप-प्रत्यारोप में जनता के असली मुद्दे-गरीबी, बेरोजगारी, पिछड़ापन, कानून एवं व्यवस्था आदि तो खो से गए। नोटबंदी को मुद्दा बनाने वाले भी उसकी छिटपुट चर्चा करने तक ही सीमित रहे। जो चर्चा हुई भी वह बेतुकी ही अधिक रही। महाराष्ट्र निकाय चुनाव के नतीजों के बाद इसकी उम्मीद कम ही है कि भाजपा विरोधी दल नोटबंदी की चर्चा करना बेहतर समझेंगे। बीएमसी यानी मुंबई नगर महापालिका समेत महाराष्ट्र के दस शहरों के निकाय चुनाव के नतीजों ने नोटबंदी के मोदी सरकार के फैसले पर न केवल मुहर लगाई, बल्कि यह भी साफ किया कि अगर विपक्षी दल इस मुद्दे पर जन समर्थन जुटाने की कोशिश करेंगे तो उन्हें मुंह की खानी पड़ेगी।
मुंबई को देश की आर्थिक राजधानी माना जाता है। विपक्षी दलों का आरोप था कि नोटबंदी का बड़े शहरों में ज्यादा असर हुआ है, लेकिन मुंबई, पुणे, नागपुर आदि शहरों में भाजपा को जैसी कामयाबी मिली उसके बाद इस पर कोई संशय नहीं रह गया कि जनता ने इस निर्णय को सराहा। यह संभव है कि इस नतीजे के बाद उत्तर प्रदेश के जिन क्षेत्रों में चुनाव शेष रह गया है वहां के मतदाताओं के मन में नोटबंदी को लेकर बचा-खुचा संशय भी समाप्त हो जाए। ध्यान रहे कि महाराष्ट्र में पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोगों की अच्छी-खासी जनसंख्या है और बाकी तीन चरणों के चुनाव पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही शेष रह गए हैं। स्पष्ट है कि इस क्षेत्र के लोगों पर महाराष्ट्र के चुनाव नतीजे किसी न किसी रूप में असर डालेंगे, लेकिन इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि उत्तर प्रदेश में इस बार भी चुनावों में जाति और मजहब के समीकरण हावी दिख रहे हैं। इसका एक बड़ा कारण आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति ही है। हालांकि अखिलेश यादव ने विकास के मसले पर चुनाव लड़ने की कोशिश की और मुफ्त लैपटॉप, स्मार्टफोन बांटने की योजनाओं के साथ ही लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस वे और लखनऊ मेट्रो को अपने विकास केंद्रित शासन का प्रमाण बताया, लेकिन धीरे-धीरे वह भी आरोप-प्रत्यारोप में उलझ गए। आज अगर विकसित राज्यों की तुलना में उत्तर प्रदेश पिछड़ा है तो इसका मतलब है कि शासन की प्राथमिकता में कोई न कोई बड़ी कमी रही। भाजपा का जोर इस पर है कि उत्तर प्रदेश के पिछड़पेन का कारण जाति आधारित राजनीति के साथ-साथ कानून एवं व्यवस्था का अभाव और भाई-भतीजावाद एवं भ्रष्टाचार है। बसपा भी इन्हीं मुद्दों पर सपा को कठघरे में खड़ी कर रही है।
सपा को विरोधी दलों के हमलों का इसलिए और सामना करना पड़ रहा, क्योंकि उसने कांग्रेस से तालमेल करने का फैसला किया। इस तालमेल के पहले मुलायम परिवार का घमासान मीडिया में छाया रहा। इस घमासान में अखिलेश मजबूत होकर जरूर निकले, लेकिन लगता है कि उनके कुछ समर्थक ऐसे भी हैं जिन्हें कांग्रेस से दोस्ती पसंद नहीं आई। चुनाव में उन्हें न तो मुलायम सिंह का साथ मिला और न ही अपने चाचा शिवपाल सिंह का। अखिलेश एक तरह से अकेले दम पर सपा का चुनाव अभियान चला रहे हैं। भाजपा ने इस बार नेतृत्व के लिए किसी चेहरे को आगे नहीं किया। कई अन्य राज्यों की तरह पार्टी उत्तर प्रदेश में भी प्रधानमंत्री को ही आगे कर चुनाव लड़ रही है। भाजपा को लगता है कि मुस्लिम मतों का सपा-कांग्रेस गठबंधन एवं बसपा में विभाजन हो जाएगा और इसका उसे लाभ मिलेगा। ऐसा होगा या नहीं, यह चुनाव परिणाम ही बताएगा। पहले यह माना गया था कि बसपा को कांग्रेस और सपा में गठबंधन होने से नुकसान होगा, लेकिन फिलहाल वह मजबूत जमीन पर दिख रही है। इसका कारण उसकी लंबी चुनावी तैयारी और विभिन्न मुस्लिम संगठनों को अपने साथ जोड़ने में सफल रहना है। इसके बावजूद यह आकलन करना कठिन है कि मुस्लिम मतदाताओं की पहली पसंद सपा रही या बसपा?
कांग्रेस ने सपा के साथ गठबंधन कर करीब सौ सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे हैं। राहुल गांधी प्रचार अभियान में पूरी तौर पर सक्रिय दिख रहे हैं, लेकिन तमाम सक्रियता के बावजूद वह अखिलेश यादव के सहायक की भूमिका में ही दिख रहे हैं। वरिष्ठ नेता शीला दीक्षित ने जिस तरह यह कहा कि राहुल गांधी को परिपक्व होने में अभी समय लगेगा उससे भाजपा को कांग्रेस के खिलाफ एक नया हथियार मिल गया है। कांग्रेस खुद भी अपनी दावेदारी को लेकर अच्छे संकेत नहीं दे रही है। पहले यह कहा गया था कि स्टार प्रचारक के रूप में प्रियंका गांधी वाड्रा सघन प्रचार करेंगी, लेकिन वह एक दिन में दो संक्षिप्त सभाओं के अलावा और कहीं नजर नहीं आईं। इसी कारण यह कहना कठिन हो रहा है कि सौ सीटों पर लड़ रही कांग्रेस सपा को बहुमत तक पहुंचने में उल्लेखनीय मदद कर सकेगी। कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर जिस तरह हाशिये पर जाती दिख रही है वह राष्ट्रीय राजनीति के लिए ठीक नहीं।
महाराष्ट्र के निकाय चुनावों के पहले ओडिशा के पंचायत चुनावों में भी कांग्रेस की हालत खासी पतली रही। भाजपा कांग्रेस की इस स्थिति का भरपूर लाभ उठा रही है। वह न केवल उस पर लगातार हमलावर है, बल्कि निकाय चुनाव नतीजों के जरिये यह साबित भी कर रही है कि राष्ट्रीय राजनीति में उसका कोई विकल्प नहीं। कांग्रेस अपनी इस स्थिति के लिए खुद ही दोषी है। राहुल मोदी विरोध के नाम पर नकारात्मकता की हद तक चले गए हैं। उनके खिलाफ राहुल के आरोप थोथे ही अधिक नजर आते हैं।
उत्तर प्रदेश में अब जिन क्षेत्रों में चुनाव शेष रह गया है वे अपने पिछड़ेपन के लिए जाने जाते हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश के मतदाता जाति और मजहब के नाम पर ही मतदान करता आए हैं, लेकिन देखना है कि वह आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति को दरकिनार कर विकास को प्राथमिकता में रखकर मतदान करता है या नहीं? जो भी हो, इतना तय है कि भाजपा विरोधी दल नोटबंदी को अपने पक्ष में भुनाने में कामयाब होने वाले नहीं। नि:संदेह अब इसकी भी उम्मीद नहीं कि बचे-खुचे दिनों में वास्तविक मुद्दे प्रचार अभियान का हिस्सा बनेंगे।

 

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