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किसान आंदोलन में सब्जियों की भूमिका

25_06_2017-surya-prakash-pandeyरात का समय था। ढेर सारी हरी और सूखी सब्जियां हाईवे के किनारे एक खेत में इकट्ठा थीं। सफाईकर्मी झाड़ू लगाकर उन्हें वहां डाल गए थे। ये वही सब्जियां थीं जिन्हें किसानों ने अपने आंदोलन के दिन सड़कों पर फेंक दिया था। खेत उन्हीं किसानों में से एक का था। उन सब्जियों में से तमाम तो उसी खेत के किसान ने उपजाई थीं। सारी की सारी सब्जियों के मुंह उतरे हुए थे। कई सब्जियां कटी-फटी थीं। ऐसा उस हाईवे पर आते-जाते ट्रकों की चपेट में आने की वजह से हुआ था। आलू खासा उदास था। प्याज कड़ाही पर चढ़ने से पहले ही गर्मी की आंच से पक चुकी थी। हरी और लाल मिर्चियों को देखकर तो ऐसा लग रहा था, जैसे इन्होंने ख़ुद ही आज तीखी मिर्चियां खा ली हों। बाकी सब्जियों में भी एक जैसी उदासी पसरी हुई थी। सुई पटक सन्नाटा था। भीतर ही भीतर एक ग़ुस्सा उबाल ले रहा था। सब्जियां चुप थीं, लेकिन उनके मुख-मंडल की दशा देख कर उनकी आंतरिक स्थिति का अनुमान कोई भी लगा सकता था। ऐसे माहौल में लौकी ने अपनी गर्दन सीधी की। ऊंची आवाज में बोली, ‘हम चुप नहीं बैठ सकते। अब वह समय आ गया है जब हमें अपने संगठन की शक्ति प्रदर्शित करनी ही होगी।

आंदोलनकारी किसानों ने सरकार का सारा गुस्सा हम पर निकालकर हमारे साथ अन्याय किया है। हमारे कई साथी हताहत हो गए हैं। कई लापता हैं। हम ऐसा अत्याचार कब तक सहते रहेंगे? हमें अब अपनी आवाज बुलंद करनी ही होगी। सब्जी एकता जिंदाबाद।’ लौकी आज पूरी रौ में थी। इसी बीच गाजर ने सुझाव दिया, ‘इस तरह अपनी बात कहने से हमारी दुर्दशा कोई नहीं सुनने वाला है। हमें पहले एक अध्यक्ष का चुनाव करना चाहिए जिससे हर किसी की बात ध्यान से सुनकर निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके।’ टिंडे ने गाजर की बात का समर्थन करते हुए कहा, ‘हमें अराजक नहीं होना है। पहले शांतिपूर्वक अपने ऊपर हुए अत्याचार के हर पहलू पर विचार करना होगा। इसके बाद अपनी मांगों को सूचीबद्ध कर उनको मनवाने के लिए सक्षम व्यक्तियों से बातचीत करनी होगी। आंदोलन किसी समस्या का हल नहीं होता। हमने दिल्ली में जंतर मंतर पर एक आंदोलन देखा। उसके बाईप्रोडक्ट से एक नए राजनीतिक व्यंजन का अभ्युदय हो गया। असली आंदोलनकारी किनारे हो लिए। सत्ता की रस मलाई खाने वाले आगे आ गए।’ भिंडी ने प्रस्ताव रखा, ‘हमें आज अवसर मिला है। हम इस तरह एकत्र हुए हैं। हमें इसका लाभ लेना चाहिए। वरना अलग-अलग कट कर रसोई घरों की कड़ाहियों में ही हमारी मुलाकातें हुआ करतीं थीं।

क्यों न एक अधिवेशन का रूप देकर समाधान का प्रयास किया जाए!’ सभी सब्जियों ने भिंडी के इस प्रस्ताव का एकमत से समर्थन किया। आलू जी को अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया। आलू जी को इस अधिवेशन का अध्यक्ष चुने जाने के पीछे सब्जियों की यह राय थी कि आलू जी ही एक मात्र ऐसी सब्जी हैं जो सभी सब्जियों से मेलजोल रखते हैं। पक्ष और विपक्ष दोनों ही इनका सम्मान करते हैं। इनकी बात मानते हैं। इसके बाद आलू जी को ससम्मान खेत की मेड़ पर टिकाकर उनकी अध्यक्षता में अधिवेशन की कार्यवाही आरंभ हुई। मुद्दा था-‘किसान आंदोलन में सब्जियों की भूमिका।’ मूली ने संचालन का दायित्व संभालते हुए कहा, ‘हमारे किसान मालिकों ने हमें ही सड़कों पर क्यों फेंका? उन्हें तो अन्नदाता कहा जाता है। उन्होंने फल और अनाज अपने पास रखे। उनको भी बाहर निकालते तो हमें उनका भी समर्थन मिला होता और उनके समर्थन मूल्य का भी अंदाजा होता।’

अनुभवी कद्दू ने कसकर मूली को डपटा, ‘अरे, तुम्हें इतना भी नहीं मालूम कि कोई भी आंदोलन हो उसमें निरीह लोग ही मारे जाते हैं। हम कमजोर और कच्चे थे, इसलिए पहली चोट हम पर ही पड़ी है।’ टमाटर ने बात को आगे बढ़ाया, ‘जरूर हमारे मालिकों को नेताओं ने उकसाया होगा, अन्यथा किसान स्वभाव से शांत और मेहनती होते हैं। उग्र होना उनका चरित्र नहीं है। वह कर्ज में डूबे रहते हैं। आत्महत्या कर लेते हैं। फांसी लगा लेते हैं, पर उफ तक नहीं करते हैं।’ प्याज ने अपने विचार परोसते हुए कहा, ‘देखो भाई! गलती तो सरकार और प्रशासनिक व्यवस्था की भी है। जब पानी सिर से ऊपर पहुंच जाता है तभी हमारी सरकारें हरकत में आती हैं?

पुलिस भी लाठी और गोली से बात करती है और विपक्ष को तो जैसे मुद्दों की तलाश में रहता है। आनन-फानन में घड़ियाली आंसू बहाने पहुंच जाता है।’ करेले ने आंसू टपकाते हुए चर्चा को आगे बढ़ाया। अधिवेशन अपने पूरे शबाब पर था। एक-एक कर सब्जियां भड़ास निकाल रही थीं। तभी चार-पांच सांड खेत में घुस आए। उन्होंने सब्जियों को चबाना शुरू कर दिया। अधिवेशन तितर-बितर हो गया। सब्जियों की यही नियति है। हमारे मुल्क में होने वाले आंदोलनों की परिणति भी तो कुछ ऐसी ही होती है।

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