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काल्पनिक खतरे का हौवा

पिछले करीब चार साल से देश में बौद्धिक, सामाजिक, अकादमिक और मीडिया के स्तर पर तनाव का सा माहौल है। ऐसा लगता है जैसे कोई निर्णायक युद्ध लड़ा जा रहा हो। ऐसा भी प्रतीत होता है कि युद्ध की घोषणा करने वालों का सब कुछ दांव पर लगा है। उनके लिए अस्तित्व का सवाल है। भारत की इस स्थिति को व्यापक वैश्विक संदर्भ में रखे बिना समझना कठिन है। साम्यवाद का किला ढहने के बाद अब लेफ्ट लिबरल्स के वर्चस्व को चुनौती मिल रही है। कई दशकों से दुनिया पर राज करने वाले इस समूह को खतरा नजर आ रहा है। पिछले चार साल में तीन ऐसी घटनाएं घटी हैं जो इस बात का साफ संकेत हैं कि दुनिया बदल रही है।

पहली घटना थी 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी की जीत। दूसरी, ब्रेक्जिट यानी ब्रिटेन का यूरोपीय संघ से निकलना थी और तीसरी थी, अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप का जीतना। ये तीनों घटनाओं ने एक ही बात का संदेश दिया कि आम लोग और खासतौर से वर्किंग क्लास चाहता है कि जिस वैश्वीकरण के लिए राष्ट्रवाद को खत्म किया गया उसकी वापसी हो। उपरोक्त तीनों घटनाओं के घटित होने से पहले के राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय विमर्श को याद कीजिए। मोदी को जब भाजपा का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया गया तो उनके खिलाफ न जाने क्या-क्या कहा गया? भविष्यवाणी की गई की उनकी जीत का तो सवाल ही नहीं उठता। मोदी तो सांप्रदायिक, अधिनायकवादी, प्रजातंत्र विरोधी एवं पूंजीपतियों के एजेंट हैं और भारतीय जनता ऐसे व्यक्ति को कभी प्रधानमंत्री नहीं बना सकती। यह भी कहा-लिखा गया कि मोदी प्रधानमंत्री बने तो देश में लोकतंत्र ही खत्म हो जाएगा। नतीजा क्या रहा? मोदी को ऐसा बहुमत मिला जो तीस साल में किसी को नहीं मिला था। ऐसे ही ब्रिटेन ने जब यूरोपीय संघ से निकलने के सवाल पर जनमत संग्रह कराने की घोषणा की तो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा कि ऐसा हुआ तो ब्रिटेन बर्बाद हो जाएगा। बुद्धिजीवी, मीडिया और अर्थशास्त्री भयावह तस्वीर पेश कर रहे थे। सबने भविष्यवाणी कर दी कि ऐसा हो ही नहीं सकता और ब्रिटिश जनता ब्रेक्जिट के खिलाफ फैसला लेगी। नतीजा क्या हुआ, यह बताने की जरूरत नहीं। 

अब तीसरी घटना पर गौर कीजिए: अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप ने उतरने की घोषणा की तो कहा गया कि ऐसे आदमी को तो पार्टी का नामांकन ही नहीं मिलेगा। जब वह मिल गया तो अमेरिका और दुनिया का अधिकांश मीडिया हिलेरी क्लिंटन के गुणगान और जीत की भविष्यवाणी करने लगा। ट्रंप के चरित्र हनन की हर संभव कोशिश की गई। 2006 के वीडियो निकाल कर दिखाए गए। ट्रंप ने अपने चुनाव अभियान में कहा कि इतने दशकों में अमेरिका के साथ दुष्कर्म हुआ है। सारे कारखाने बंद कर दिए गए। लोगों का रोजगार चला गया। देश की जनता यही सुनना चाहती थी। जब ट्रंप जीत गए तो कहा गया रिकाउंटिंग में हार जाएगा। चुनाव के दौरान अमेरिका का सिर्फ एक उद्योगपति ट्रंप के साथ था। बाकी के उद्योगपतियों में ज्यादातर विरोधी खेमे में थे। कुछ परोक्ष और कुछ प्रत्यक्ष तौर पर। 1989 में एक अमेरिकी पत्रिका में मशहूर राजनीतिशास्त्री फ्रांसिस फुकूयामा ने ‘एंड ऑफ हिस्ट्री’ यानी इतिहास का अंत शीर्षक से एक लेख लिखा था। इसके तीन साल बाद उन्होंने इसी विषय पर एक किताब लिखी, ‘द एंड ऑफ हिस्ट्री ऐंड द लास्ट मैन।’ लेख और किताब का निचोड़ यह था कि 1989 में सोवियत संघ के विघटन और साम्यवाद के बिखराव के बाद दुनिया में पूर्व और पश्चिम का वैचारिक संघर्ष खत्म हो गया है और पश्चिम की लिबरल डेमोक्रेसी जीत गई है। इसलिए इतिहास का अंत हो गया है। बहुत से टिप्पणीकारों ने इसे एंडिज्म भी कहा। चूंकि पश्चिम का जनतंत्र स्वतंत्रता और समानता के सिद्धांत पर टिका है इसलिए माना गया कि किसी को ऐतराज नहीं होगा। 

इसी परिकल्पना से वैश्वीकरण के सिद्धांत को बल मिला। वैश्वीकरण के लिए जरूरी था कि राष्ट्रवाद टूटे, क्योंकि वही इसके रास्ते की सबसे बड़ी बाधा था। पूंजीवाद मुक्त बाजार को पसंद करता है, लेकिन वास्तव में वह इसके बहाने समाज के प्रभु वर्ग के लिए बाजार में हेराफेरी करता है। वैश्वीकरण कहता है कि दुनिया में जहां कच्चा या सस्ता माल मिले वहां से लो। जहां मजदूर सस्ता मिले वहां विनिर्माण करो और जहां लोगों में खरीदने की शक्ति हो वहां बेचो। इस व्यवस्था में उस देश के लोगों के रोजगार के बारे में कोई विचार नहीं होता। उस देश की दूसरी आर्थिक गतिविधियों से भी कोई मतलब नहीं होता। साम्यवाद के खात्मे के बाद भारत और दुनिया के कम्युनिस्टों के लिए कोई आसरा नहीं रह गया। राष्ट्रवाद के वे पहले भी खिलाफ ही थे। सो कम्युनिस्ट यूरोप और अमेरिका की पूंजी से चलने वाले लोग एनजीओ में चले गए। वैश्वीकरण के दौर में राष्ट्रवाद के विरोध के बहाने लिबरल डेमोक्रेट्स को लेफ्ट का साथ मिल गया। दोनों ने मिलकर पूरी दुनिया के अर्थतंत्र, बौद्धिक जगत, अकादमिक जगत और मीडिया पर कब्जा कर लिया। 

दरअसल वैश्वीकरण का पहला एजेंडा ही राष्ट्रवाद खत्म करना था। इस गठजोड़ ने एक झूठ को दुनिया में प्रचारित किया कि लेफ्ट-लिबरल डेमोक्रेसी के अलावा दुनिया का कोई भविष्य नहीं है। इतिहास खत्म हो चुका है, इस झूठ को प्रचारित करते-करते वे उस पर यकीन करने लगे। कुछ साल तक दुनिया में लोग वैश्वीकरण की चकाचौध से चौंधियाए रहे, फिर धीरे-धीरे उन्हें एहसास होने लगा कि वैश्वीकरण ने उनकी आजीविका छीन ली, राष्ट्रीय पहचान खत्म हो रही और लोग बाजार एवं उपभोक्ता बनकर रह गए। जब तक लोग चुपचाप सहते रहे, लगता रहा सब कुछ ठीक है। फिर धीरे-धीरे लोगों की राष्ट्रवाद की आकांक्षा जगी और बदलाव का दौर शुरु हुआ। 

वेतनभोगी और श्रमिक वर्ग उठ खड़ा हुआ। इस बदलाव से लेफ्ट लिबरल शक्तियां अभी तक हतप्रभ हैं। उनके सपनों का संसार खंड-खंड हो रहा है। हम दुनिया को चलाते हैं और हम ही दुनिया का एजेंडा तय करते हैं, यह घमंड चकनाचूर हो रहा है। यह बदलाव सार्वभौमिक है। इसमें जीतने वाले नेताओं के गुण-दोष का सवाल गौण है। लेफ्ट लिबरल अपने आखिरी पैर पर खड़े हैं। भारत में इस लड़ाई को दिग्भ्रमित करने के लिए पहले (मोदी की जीत के वक्त) बहुसंख्यकवाद के खतरे का हौवा खड़ा किया गया। फिर यह नया विमर्श आया कि धुर दक्षिणपंथ हावी हो रहा है, समाज और देश को बचना है तो इससे लड़ना होगा। मोदी और संघ परिवार इसके लिए आसान टारगेट हैं। यह लड़ाई मोदी या संघ परिवार की नहीं आम आदमी की राष्ट्रवाद की महत्वाकांक्षा की है। अफसोस कि आजादी की लड़ाई के समय से राष्ट्रवाद और मध्यमार्ग पर चलने वाली कांग्रेस पार्टी लेफ्ट लिबरल के साथ खड़ी है। वरना इस बदलाव की स्वाभाविक दावेदार वही बनती। इस सबके बावजूद जिन्हें जिम्मेदारी मिली है उन्हें यह समझना होगा कि आजीविका इस राष्ट्रवादी भावना के उभार का अविभाज्य अंग है।

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