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कामयाबी ने देखा खुद को रचते हुए

16_02_2017-15sukhdev_prasadपिछले कुछ दिनों से जिसकी चर्चा खूब थी और जिस दिन का इंतजार था वह एक शानदार कामयाबी के रूप में पूरा हुआ। हमारे रॉकेट पीएसएलवी-सी 37 ने श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र से बुधवार 15 फरवरी को प्रात: 9:28 बजे उड़ान भरी और 32 मिनटों की अवधि में उसने 104 उपग्रहों को अलग-अलग कक्षाओं में कुशलतापूर्वक स्थापित कर ऐसा कारनामा कर दिखाया जिसे आज तक दुनिया के किसी और देश ने अंजाम नहीं दिया। दरअसल इसे ही कहते हैं कि कामयाबी ने देखा खुद को रचते हुए। आज जब इस सफलता की गाथा सबके जुबान पर है तब थोड़ा पीछे चलते हैं।
वह 28 अप्रैल 2008 का दिन था जब पीएसएलवी-सी 9 ने एक साथ दस उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण कर नया इतिहास रचा था। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के उस अभियान में दो स्वदेशी उपग्रह ‘कार्टोसैट-2ए’ और आइएमएस (इंडियन मिनी सैटेलाइट) और आठ विदेशी उपग्रह थे। ये विदेशी उपग्रह जापान, कनाडा, डेनमार्क, जर्मनी और नीदरलैंड के थे। यह पूरा मिशन तकरीबन 20 मिनट तक चला और सभी उपग्रहों के सफल प्रक्षेपण के साथ ही देश अंतरिक्ष की दुनिया में कामयाबी की एक नई इबारत लिख चुका था। लगभग उसी वक्त एक खबर आई थी, लेकिन उसने सुर्खियों में बहुत ज्यादा जगह नहीं बनाई। खबर यह थी कि रूस ने कभी एक साथ 13 उपग्रहों का सफल प्रक्षेपण किया था, मगर उस उपलब्धि को लेकर रूस ने कभी स्वीकारोक्ति नहीं की। इसरो के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. जी माधवन नायर ने इस पर यही टिप्पणी की थी कि हमें जानकारी नहीं कि अंत में इसका क्या परिणाम रहा? आगे चलकर नासा के नाम यह कीर्तिमान बना। 2013 में इस अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ने एक साथ 29 उपग्रह प्रक्षेपित किए, मगर उसके अगले ही साल एक साथ 37 उपग्रह प्रक्षेपित कर रूस ने कीर्तिमान का सेहरा अपने सिर सजा लिया। इसी कड़ी में इसरो की 22 जून, 2016 की उपलब्धि भी उल्लेखनीय थी जब एक साथ 20 उपग्रह सफलतापूर्वक प्रक्षेपित कर उसने अभिनव रिकॉर्ड बनाया था। उन 20 उपग्रहों में तीन स्वदेशी और 17 विदेशी उपग्रह थे। उन 17 में भी 13 उपग्रह अकेले अमेरिका के थे। एक दौर में अमेरिका ने हमारे रॉकेट रोहिणी-75 के प्रक्षेपण को खिलौना करार देकर हमारा मजाक उड़ाया था और कहा था कि भारत कभी रॉकेट नहीं बना सकता। इतना ही नहीं अभी कुछ साल पहले ही अमेरिकी सीनेट में बाकायदा यह कहा गया कि अमेरिका भारतीय जमीन से अपने किसी उपग्रह का प्रक्षेपण नहीं कराएगा, मगर समय होत बलवान। अमेरिका को अपने पुराने रुख से पलटना पड़ा। आज स्थिति यह है कि दुनिया के तमाम देश इसरो से अपने उपग्रह प्रक्षेपित कराने के लिए लालायित हैं। असल में हमारी रॉकेट प्रणाली तकनीकी रूप से इतनी उन्नत और परिपक्व हो चुकी है कि दुनिया आंख मूंदकर उस पर भरोसा करने लगी है। अगर एक उड़ान को छोड़ दिया जाए तो ध्रुवीय रॉकेट की सफलता असंदिग्ध है। इसके खाते में इकलौती नाकामी 20 सितंबर 1993 को उस अभियान के तौर पर दर्ज हुई थी जब श्रीहरिकोटा से प्रक्षेपित उपग्रह मंजिल पर नहीं पहुंच पाया था।
एक साथ एक सौ चार उपग्रहों के सफल प्रक्षेपण से पहले तक पीएसएलवी रॉकेट के जरिये इसरो 79 विदेशी और 42 स्वदेशी उपग्रहों को सफलतापूर्वक अंतरिक्ष में स्थापित कर चुका है। अपनी दूसरी सफल उड़ान के बाद पीएसएलवी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। एक सौ चार उपग्रहों में तीन भारतीय और 101 विदेशी उपग्रह हैं। भारतीय उपग्रहों में 714 किलोग्राम वजनी सुदूर संवेदी उपग्रह ‘कार्टोसैट-2डी’ है। दो नैनो उपग्रह आइएनएस 1ए और 1बी हैं। इनका वजन नौ-नौ किलोग्राम है। सभी उपग्रहों का कुल भार 1378 किलोग्राम है। इसके अलावा अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी ‘प्लेनेट’ के 88 उपग्रह हैं जिनमें प्रत्येक का भार पांंच-पांच किलोग्राम है। इन्हें ‘डोव’ या ‘फ्लाक-3 पी’ भी कहा जाता है। इन 88 उपग्रहों का एक साथ प्रक्षेपण भी एक रिकॉर्ड ही है। ‘प्लेनेट’ ने 15वीं बार अपने डोव उपग्रहों का प्रक्षेपण किया है। इनकी भी स्थापना हमारे रॉकेट (पीएसएलवी-सी 34) ने जून, 2016 को की थी। नासा के अवकाश प्राप्त वैज्ञानिकों द्वारा स्थापित कंपनी प्लेनेट ने दूसरी बार इसरो की सेवा ली है। इस प्रक्षेपण में एक और अमेरिकी कंपनी के ‘लीमर’ शृंखला के आठ उपग्रहों का भी प्रक्षेपण किया गया है। इस प्रकार 104 उपग्रहों के बेड़े में 96 उपग्रह अमेरिका के ही हैं। तीन भारतीय उपग्रहों के अलावा शेष पांच इजरायल, कजाखिस्तान, नीदरलैंड, स्विट्जरलैंड और संयुक्त अरब अमीरात के हैं। इसरो की ताजा कामयाबी ने इस पर मुहर लगा दी कि उसके जैसी भरोसेमंद और किफायती प्रणाली का कोई विकल्प नहीं। इसने बेहद कम बजट में कई मिशन पूरे किए हैं जिस पर दूसरे देशों को भारी रकम खर्च करनी पड़ी। मसलन यह कि हमारे चंद्रयान का बजट मात्र 386 करोड़, मंगलयान का बजट मात्र 450 करोड़ रुपये का था। इतना ही नहीं, भारत ने अमेरिकी जीपीएस के पैटर्न पर अपनी जो नेविगेशन प्रणाली विकसित की है उसका कुल बजट मात्र 1420 करोड़ रुपये है।
ध्रुवीय रॉकेट की ताजा सफलता उसकी 39वीं कामयाबी है। इसमें उसके एक्स-एल यानी एक्सट्रा लार्ज संस्करण का इस्तेमाल किया गया। ध्रुवीय रॉकेट चार चरणीय रॉकेट है जिसके पहले और तीसरे चरण में ठोस और दूसरे और चौथे चरण में प्रपेलेंट यानी द्रव ईंधन का उपयोग होता है। इसके स्टैंडर्ड मॉडल के पहले चरण में संलग्न छह बूस्टरों में प्रत्येक में नौ टन ठोस ईंधन भरा जाता है, लेकिन पेलोड अधिक होने पर रॉकेट को ज्यादा शक्ति देने के लिए प्रत्येक बूस्टर में 12 टन ईंधन प्रयुक्त किया जाता है। ध्रुवीय रॉकेट के एक्स-एल संस्करण का इस्तेमाल हम चंद्रयान-1 और मंगलयान अभियान में भी कामयाबी के साथ किया जा चुका है। इसरो की एक और कामयाबी यह सुनिश्चित करती है कि वह ऐसी और उपलब्धियां हासिल करेगा जो देश को गौरवान्वित करेंगी।

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