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कानून के शासन की अनदेखी

28_05_2017-27sanjay_guptaउत्तर प्रदेश में भाजपा को प्रबल बहुमत मिलने के बाद योगी आदित्यनाथ ने जिस आत्मविश्वास के साथ कार्यभार संभाला उससे प्रदेश के साथ शेष देश की जनता भी इसके प्रति आशान्वित हुई कि पिछले डेढ़ दशक में बिगड़ी स्थितियां सुधरेंगी और सब कुछ कानून के शासन के हिसाब से होगा। हालांकि योगी को सत्ता संभाले दो माह हो चुके हैं, लेकिन राज्य के विभिन्न हिस्सों और खासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में आपराधिक गतिविधियों के साथ सामाजिक सद्भाव को चुनौती देने वाली घटनाओं का सिलसिला कायम है। यह सही है कि इतने बड़े प्रदेश में, जहां कानून-व्यवस्था पहले से ही खराब हो, इतनी जल्दी सुधार की उम्मीद ठीक नहीं, फिर भी इसका औचित्य नहीं कि अपराधी तत्व और दुस्साहसी नजर आएं। सहारनपुर की जातीय हिंसा के साथ मथुरा में हत्या एवं लूटपाट की वारदात के उपरांत यमुना एक्सप्रेस वे के पास हत्या और महिलाओं से दुष्कर्म की घटना के बाद से पुलिस के साथ योगी सरकार भी सवालों के घेरे में है तो यह स्वाभाविक है। हालांकि यमुना एक्सप्रेस वे के निकट घटी घटना में महिलाओं से दुष्कर्म को लेकर विरोधाभासी बयान आ रहे हैं, लेकिन इस वारदात ने पिछले साल बुलंदशहर में घटी ऐसी ही घटना की याद दिलाकर लोगों को दहशतजदा करने का काम किया है?
बढती आपराधिक घटनाएं किसी राज्य विशेष तक सीमित नहीं हैं। देश के हर हिस्से में आए दिन संगीन वारदातें हो रही हैं। ये यही बताती हैं कि कानून एवं व्यवस्था के मोर्चे पर स्थितियां संतोषजनक नहीं हैं। उत्तर प्रदेश में तो कानून एवं व्यवस्था एक अर्से से चिंता का विषय है। सामान्य आपराधिक घटनाएं, हफ्ता वसूली, खुलेआम गुंडागर्दी के साथ जातीय एवं सांप्रदायिक हिंसा की वारदातें लगातार सुर्खियां बनती रही हैं। यह चिंताजनक है कि सत्ता परिवर्तन के बाद भी प्रदेश को ऐसी सुर्खियों से छुटकारा नहीं मिल रहा है। ऐसी घटनाओं में सबसे गंभीर है सहारनपुर की जातीय हिंसा। इस जिले में पहले अंबेडकर जयंती के दौरान निकले एक जुलूस के समय हिंसा भड़की। इसके बाद महाराणा प्रताप की प्रतिमा स्थापित करने को लेकर उपद्रव हुआ। इन घटनाओं ने दलितों और ठाकुरों को आमने-सामने ला खड़ा किया। हालांकि पिछले कुछ दिन से हालात शांत होते दिख रहे, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि दोनों पक्ष ने उग्रता का परिचय दिया। दलितों की मानें तो ठाकुर उन्हें दबाने में लगे हैं और ठाकुरों की सुनें तो दलितों की भीम आर्मी उनके खिलाफ माहौल बिगाड़ने में लगी हुई है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसके पहले अखिलेश सरकार के समय मुजफ्फरनगर में दंगे हुए थे, जिसमेंं करीब 60 लोगों की जान गई थी और हजारों को पलायन करना पड़ा था। इन दंगों के बाद मुजफ्फरनगर और आसपास रह-रहकर सामाजिक सद्भाव को चुनौती मिलती रही। पुलिस की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह बिना किसी भेदभाव के सामाजिक अशांति को चुनौती देने वालों के साथ-साथ हर किस्म के अपराधी तत्वों को सख्ती से नियंत्रित करे। जब ऐसा होगा तभी योगी आदित्यनाथ के इस दावे को बल मिलेगा कि उप्र में कानून से खिलवाड़ करने वालों की खैर नहीं।
कानून-व्यवस्था के समक्ष जैसी चुनौतियां बढ़ती जा रही है उस हिसाब से पुलिस खुद को सक्षम नहीं पा रही है। इसका असर आंतरिक सुरक्षा व्यवस्था पर पड़ रहा है। एक तो पुलिस छोटी-मोटी आपराधिक घटनाओं का संज्ञान नहीं लेती और दूसरे, जनता ऐसी घटनाओं की पुलिस से शिकायत करने से बचती है-इस डर से कि पता नहीं वह किस तरह बर्ताव करेगी? नि:संदेह पुलिस के समक्ष भी समस्याएं हैं। एक तो आबादी के अनुपात में पुलिस पर्याप्त संख्या बल से लैस नहीं और दूसरे उसके पास संसाधनों का भी अभाव है। कहीं-कहीं तो पुलिस के पास बुनियादी साधन भी नहीं है। कई थाने ऐसे है जहां एक अदद टेलीफोन भी नहीं है। रही-सही कसर पुलिस के काम में राजनीतिक हस्तक्षेप ने पूरी कर दी है। पुलिस सुधार में रुचि न ले रहे राजनीतिक दलों को यह पता होना चाहिए किसी भी इलाके की समृद्धि का एक बड़ा आधार कानून एवं व्यवस्था की सही स्थिति होती है। लचर कानून एवं व्यवस्था धीरे-धीरे सब कुछ ठप कर देती है। कहीं भी छोटे-मोटे धंधे से लेकर बड़े कल-कारखाने तभी सही तरह चल सकते हैं जब कानून एवं व्यवस्था दुरुस्त हो। असुरक्षा की भावना आम लोगों और विशेष रूप से महिलाओं के स्वाभाविक विकास में भी बाधक बनती है। सबको पता है कि खराब कानून एवं व्यवस्था वाले इलाकों में किस तरह लड़कियां स्कूल-कॉलेज जाने और महिलाएं नौकरी के लिए बाहर जाने में हिचकती हैं। यह समझने की जरूरत है कि दुरुस्त कानून एवं व्यवस्था का मतलब केवल अपराध नियत्रंण ही नहीं है। अपराध नियंत्रण के साथ हर तरह की अव्यवस्था और अनियमितता का निदान भी सही कानून एवं व्यवस्था का सूचक होता है। यातायात सुगम रखने के साथ सड़कों एवं सार्वजनिक स्थलों को अतिक्रमण से मुक्त करने जैसे कई काम पुलिस के हिस्से में ही आते हैं।पुलिस का काम कठिन इसलिए है, क्योंकि भारत में औसत लोग छोटे-मोटे कानून तोड़ने की परवाह नहीं करते। यह भी ध्यान रहे कि सामान्य अपराधों के साथ साइबर क्राइम और सफेदपोश लोगों की ओेर से किए जाने वाले अपराध भी पुलिस की चुनौती बढ़ा रहे हैं।
जब पुलिस के समक्ष चुनौतियां लगातार बढ़ती जा रही हैं तबउसके लिए एक चुनौती खुद राजनीतिक दल ही बन गए हैं। राजनीतिक कार्यक्रमों और खासकर धरना-प्रदर्शन के दौरान हिंसा होना अब आम बात हो गई है। कई बार तो राजनीतिक दल धरना-प्रदर्शन के दौरान जानबूझकर अराजकता फैलाते हैं। इसी तरह वे सामाजिक-सांप्रदायिक अशांति के समय वैमनस्य बढ़ाने और लोगों को भड़काने का भी काम करते हैं। पिछले कुछ समय से एक अन्य समस्या विभिन्न संगठनों, समूहों अथवा भीड़ के द्वारा कानून हाथ मेंं लेने की बढ़ती प्रवृत्ति के रूप में सामने आई है। कथित तौर पर कानून के खिलाफ काम करने वालों का विरोध करने के नाम पर कानून हाथ में लेने के बढ़ते मामले कानून एवं व्यवस्था के लिए गंभीर खतरा हैं। हाल में झारखंड में बच्चा चोरी के अफवाह में छह लोगों की पीट-पीट कर हत्या और गोरक्षा के नाम पर लोगों के साथ होने वाली मारपीट की घटनाएं शुभ संकेत नहीं। किसी को भी यह अधिकार नहीं मिल सकता कि वह स्वयंभू अदालत के तौर पर काम करे। यह काम पुलिस का है और उसे ही करने दिया जाना चाहिए।
जब देश मेंं हर तरह के सुधार हो रहे हैं तो फिर राजनीतिक दलों को कानून एवं व्यवस्था में ठोस सुधार के लिए आगे आना चाहिए। यह सभी के हित में है। पुलिस सुधारों की अनदेखी ठीक नहीं। मोदी सरकार ने अपने तीन वर्ष के कार्यकाल में कई कानून खत्म किए और तमाम नए कानून बनाए एवं बदले हैं,लेकिन पता नहीं क्यों पुलिस सुधार उसके एजेंडे में नहीं दिख रहा है। राज्य अपने अधिकार क्षेत्र वाले कानून एवं व्यवस्था के विषय पर सजग भले दिखते हों, लेकिन वे पुलिस के ढांचे को दुरुस्त करने के प्रति अपेक्षित सजगता नहीं दिखा रहे हैं। कानून एवं व्यवस्था में सुधार के नाम पर पुलिस की चौकसी बढ़ाने या सीसीटीवी लगाने मात्र से बात बनने वाली नहीं। किस्म-किस्म के अपराधियों की बढ़ती सक्रियता और आंतरिक सुरक्षा के समक्ष उत्पन्न हो रहे नए-नए खतरों को देखते हुए यह आवश्यक है कि पुलिस को आवश्यक स्वायत्तता प्रदान करने के साथ ही पर्याप्त संसाधनों से भी लैस किया जाए।

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