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Exclusive:कहानी इंदिरा मनोरंजन पार्क की

देव श्रीवास्तव
लखीमपुर-खीरी।

तेरी गलियों में न रखेंगे कदम आज के बाद
अब दिखावा भर रह गई हैं इमारतें और बाड़े

 

1990 से डेढ़ दशक तक इंदिरा मनोरंजन पार्क लोगों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा। पिकनिक स्पाट बना। यहां तक कि छोटा चिड़ियाघर के रूप में पहचान बनाने में भी कामयाब रहा। मगर अचानक यहां गिरावट आनी शुरू हो गई। धीरे-धीरे आने वाले सैलानियों की संख्या कम होने लगी। भीड़ इक्का-दुक्का लोगों में बदल कर रह गई। परिवारों ने तो आना ही छोड़ दिया। आज तो आलम यह है कि यहां चरवाहों और मवेशियों के सिवाए केवल पार्क में काम करने वाले ही नजर आते हैं। सैलानियों के लिए की गईं व्यवस्थाएं सिर्फ दिखावा ही बनकर रह गई हैं।

 

कहती है राह ‘फिर कभी मत आना’

 

पार्क की स्थापना के समय इसे पूरी तरह से आकर्षक बनाने पर ही जोर दिया गया था। कलरव करती कंडवा नदी से एक कृत्रिमधारा निकाली गई थी। इसके ऊपर जंगल के बीचों-बीच सा अहसास कराने के लिए लकड़ियों का पुल बनाया गया था। गुजरने पर यह पुल हल्का सा हिलता-डुलता था जिससे आने वाले लोग जंगल में किसी नदी से गुजरने सा आनंद लेते थे। आज इसकी हालत बहुत ही दयनीय हो चुकी है। मवेशियों की आवाजाही में पुल पर लगाई गईं लकड़ी की फंटियां या तो जगह-जगह से टूट चुकी हैं या फिर क्षतिग्रस्त अवस्था में पहुंच चुकी हैं। पुल को ठीक कराने के लिए कोई बजट भी पास नहीं हुआ। अब पार्क में नौकरी करने वालों ने गुजरने के लिए लकड़ी के बोटे लगा रखे हैं। उस पर बाइक निकालने के लिए पत्थरों का इंतजाम है। इस राह पर अब वही लोग भर गुजरते हैं जिनका गुजारा यहीं से चलता है। वरना आने वाले सैलानियों को तो यह राह खुद कहती है कि ‘‘अब यहां फिर मत आना’’ 

अब खाना नहीं खामोशी मिलती है

इंदिरा मनोरंजन पार्क के मुख्यद्वार में प्रवेश करने पर सबसे पहला पड़ाव है कैंटीन का। सैलानी सबसे पहले यहां से खाने-पीने का सामान खरीदते थे। फिर पुल से होकर मुख्य पार्क में पहुंचते थे। कैंटीन से हर रोज हजारों रुपयों की खरीददारी हुआ करती थी। हरदम ग्राहकों को सेवा देने वाली यह कैंटीन अब खुद किसी की मदद का इंतजार कर रही है। कभी-कभार कोई भूलवश या अज्ञानतावश यहां पहुंच भी जाता है और कुछ खाने के इरादे से जब कैंटीन में पहुंचता है तो उसे खाने का सामान नहीं बल्कि खामोशी मिलती है। 


कबाड़ से नजर आते हैं जानवरों के बाड़े

पार्क में जानवरों को रखने के लिए बेहतर व्यवस्था हुई थी। हिरनों व बारहसिंघों के लिए एक बड़ा सा बाड़ा बनाया गया था तो चीतल, जंगली खरगोशों व अजगर को पालने के लिए भी छोटे-छोटे कम्पार्टमेंट स्थापित हुए थे। आने वाले सैलानी न केवल इन जानवरों को खुली आंखों से देख पाते थे बल्कि अपनी खुशी के लिए इन्हें तरह-तरह की चीजें भी खिलाते थे। अपने खिलवाड़ से लोगों को आनंदित करने वाले यह जानवर यहां से लखनऊ चिड़ियाघर भेजे जा चुके हैं। अब खाली पड़े यह बाड़े कभी किसी के यहां होने भर का अहसास कराते हैं।

झाड़ियों में तब्दील हो चुकी है खूबसूरती

जंगल का अहसास कराने के लिए यहां तमाम तरह के पेड़ व जंगली पौधे लगाए गए थे। आकर्षण बरकरार रखने के लिए साफ-सफाई पर विशेष ध्यान दिया जाता था। प्राकृतिक सुंदरता के बीच झूले व फौव्वारे अलग ही खुशी देते थे। पर समय के साथ सब कुछ बदल चुका है। पूरे पार्क में जंगल-झाड़ी नजर आती है। फौव्वारा सालों से बंद पड़ा है। झूले किसे के आने का इंतजार करते रहते हैं। हिरन का बाड़ा जगह-जगह से टूट चुका है। पूरे परिसर में मूंजे ही मूंजे नजर आते हैं।

सूखे ट्रैक में सालों से पड़ी हैं बोट

जंगली माहौल में नाव का आनंद दिलाने वाली बोट धीरे-धीरे कबाड़ में तब्दील होती जा रही है। ट्रैक का पानी भी सूख चुका है। बोट में जगह-जगह जंग लग चुकी है। कई जगह छेद नजर आते हैं। जब कोई आता ही नहीं तो अब यहां पानी और नाव की भला आवश्यकता ही क्या है। दस साल पहले जिस सूखे स्थान पर नाव पड़ी थी आज भी वह वहीं पर विराजमान है।