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कसौटी पर कसी जाएं पुरानी परंपराएं

19_05_2017-18hriday_narain_dixitकालरथ गतिशील है। इसलिए प्रकृति प्रतिपल परिवर्तनशील है। मनुष्य प्रकृति का भाग है। प्रकृति में तमाम अंतर्विरोध भी हैं। आदिम मनुष्य ने प्रकृति से अनुकूलन किया और टकराया भी। पहले वह नग्न था। वह गुफाओं जंगलो में रहा। सतत विकास का क्रम चलता रहा। पत्तों से कमर ढंकने से लेकर तेज रफ्तार हवाई यात्राओं तक विकसित मनुष्य वृद्धि ने हर छलांग में पुराना छोड़ा है। रूढ़ियां तोड़ी हैं। अंधविश्वास त्यागे हैं। आधुनिक दुनिया प्राचीन विश्व का ही विकास है। पुराने का विदा होना और नए का उसकी जगह लेना प्रकृति का नियम है, लेकिन विद्वान अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से तीन तलाक को आस्था का विषय बताया। उन्होंने यह भी कहा कि तीन तलाक 1,400 साल से चलने वाली प्रथा है और इसीलिए उसमें दखल नहीं दिया जाना चाहिए। उनके अनुसार यह श्रीराम के अयोध्या में जन्म लेने के विश्वास जैसी आस्था है और आस्था के विषयों पर संवैधानिक नैतिकता और समानता का सिद्धांत नहीं लागू होता। हालांकि उन्होंने इस्लाम की शुरुआत के समय कबीलाई व्यवस्था का भी उल्लेख किया, लेकिन कबीलाई व्यवस्था के समय की परंपराओं से मुक्त होने की बात नहीं की। दुनिया के सभी समाज सभ्यता विकास के प्रथम चरण में कबीलाई ही थे। वे सामाजिक विकास की तमाम मंजिलें पार करते हुए पुराने अंधविश्वासों से मुक्त हुए। बेशक हरेक देश और सभ्यता का समय भिन्न- भिन्न था।
समाज व्यवस्था जड़ नहीं होती। आदर्श समाज नदी की तरह गतिशील होते हैं। गतिशील समाज के सदस्य परस्पर वाद-विवाद संवाद करते हैं। यूरोपीय समाज ने अपनी दार्शनिक चेतना प्राचीन यूनान से प्राप्त की। सुकरात ने देव आस्थाओं को जांचने पर जोर दिया। उसे मृत्युदंड मिला। शिष्य प्लेटो ने उसी विचार का विकास किया। ‘रिपब्लिक’ जैसा विश्वस्तरीय ग्रंथ आया। अरस्तू के दर्शन ने मनुष्य चेतना को नए आयाम दिए। इनसे पहले लगभग 600 ईसा वर्ष पूर्व थेल्स ने बताया कि सृष्टि का उद्भव जल से हुआ। ज्ञान यात्रा में कोई भी निष्कर्ष अंतिम नहीं होता। रिलीजन, पंथ या मजहब अपने उद्भव के समय के श्रेष्ठतर विचार हो सकते हैं, लेकिन कोई भी विचार विश्वास जड़ नहीं होता। रोम के विश्वास भी नहीं और न ही ईसाइयत के। भारत के ऋग्वैदिक समाज में प्रकृति के नियमों पर जोर है। ऋग्वेद में धर्म की चर्चा बहुत कम है। यहां प्राकृतिक नियमों को ‘ऋत’ कहा गया है। डॉ. राधाकृष्णन की टिप्पणी है कि परमसत्ता भी नियमों से बड़ी नहीं है।
प्रकृति के गोचर प्रपंच ढेर सारे हैं। सूर्य का उगना और अस्त होना नियमों में है, चंद्रमा का उगना, बढ़ना और पूर्णिमा होना तथा फिर घटते हुए अमावस्या हो जाना प्रतिबद्ध नियमों में है। आकाश में मेघों का आना, वर्षा करना या न करना, वर्षा से पृथ्वी पर हरीतिमा आना नियमों में है। हमारा आपका जन्म लेना, तरुण और वृद्ध होकर न रहना भी नियमानुसार है। वनस्पतियों का उगना, मुस्कराना, फूल देना, खिलना, बीज होना और फिर बीज के भीतर उन सभी गतिविधियों का स्वचलित यंत्र होना भी विस्मयबोधक नियमबद्धता है। सत्य और धर्म पर्यायवाची हैं, लेकिन मनुष्य का धर्म स्थिर आचार संहिता नहीं है। देश काल की तमाम शक्तियां धर्म को भी प्रभावित करती रही है। रामायण काल के धर्म में मर्यादा है। श्रीराम इसी मर्यादा के मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, लेकिन महाभारत का समय तमाम अंतर्विरोधों का है। धर्म-अधर्म की व्याख्याएं टूट रही हैं। यह समय अधर्म को भी धर्म समझने वाला है। गीताकार ने इसके लिए बहुत खूबसूरत शब्द प्रयोग किया है-ग्लानि। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, ‘जब-जब धर्म की ग्लानि होती है, तब-तब धार्मिक पुनर्जागरण के लिए अवतार होते हैं।’ श्रीराम रामायण काल के प्रचलित धर्म को मजबूती देते हैं, कष्ट उठाकर भी मर्यादा का पालन करते हैं, लेकिन श्रीकृष्ण प्रचलित धर्म को चुनौती देते हैं।
महाभारत में तत्कालीन धर्म के मजेदार और भावुक प्रसंग है। वन पर्व में द्रोपदी और धर्मराज युधिष्ठिर के बीच भी धर्म पर चर्चा है। द्रोपदी ने कहा, ‘मैंने आपसे सुना है कि धर्म की रक्षा करने से धर्म स्वयं ही धर्मरक्षक की रक्षा करता है, लेकिन वह धर्म आपकी रक्षा नहीं कर रहा है।’ युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, ‘वशिष्ठ, व्यास, मैत्रेय आदि ऋषि धर्म पालन से ही शुद्ध मन हुए। यदि धर्म निष्फल होता तो जगत अंधकार में होता।’ (वन पर्व 30-31) इसी पर्व में युधिष्ठिर और यक्ष का दिलचस्प संवाद है। ढेर सारे प्रश्न हैं, लेकिन एक प्रश्न-क: पंथा:? अर्थात जीवन मार्ग क्या है का यह उत्तर बहुत लोकप्रिय है-महाजनो येन गता स पंथा: यानी महापुरुषों का मार्ग ही सच्चा मार्ग है। यहां युधिष्ठिर का पूरा उत्तर घुमावदार, लेकिन दार्शनिक है। धर्म का तत्व भले ही गूढ़ हो, लेकिन धर्म जड़ या गूढ़ नहीं होता। धर्म सतत विकासशील आचार संहिता है। यूरोप में पहले सामंतवाद था। फिर राजतंत्र आया। यहां लाखों निर्दोष महिलाओं को डायन बताकर सार्वजनिक रूप से मारा गया। पंथिक गुरु पृथ्वी की गतिशीलता का तथ्य नहीं मानते थे। गैलीलियो का उत्पीड़न हुआ। कॉपरनिकस के निष्कर्षों से प्राचीन मान्यताएं धराशायी हो गईं। सामाजिक विकास के क्रम में यूरोपीय भी वैज्ञानिक तथ्य मानने लगे। चीन में लाउत्सु ने ‘ताओ तेह चिंग’ नाम से खूबसूरत दर्शन दिया। प्राचीन भारत में आस्था थी कि समुद्र पार नहीं जाना चाहिए, परंतु कौंडिन्य जैसे लोग भारत की संस्कृति लेकर समुद्र पार बाहर गए। ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था नहीं थी। सामाजिक विकास के क्रम में वर्ण आए। उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था है, किंतु उसे चुनौती देने वाला उपनिषद् दर्शन भी है। वर्ण से जातियां बनीं। जन्मना जाति श्रेष्ठता का विकार आया। बुद्ध, शंकराचार्य, नागार्जुन ने नया दर्शन दिया। दयानंद ने धार्मिक रूढ़ियों को चुनौती दी। सती प्रथा थी। राजाराम मोहनराय ने अभियान चलाया। भारत का धर्म कभी जड़ नहीं रहा। सतत गतिशीलता और आत्मसुधार के कारण इसे पुनर्नवा शक्ति मिलती रही। गांधी, अंबेडकर आदि ने अपने-अपने ढंग से भारत की धार्मिक चेतना को जड़ नहीं होने दिया।
धर्म, पंथ, मजहब या रिलीजन एक जैसे नहीं हैं। जीव वैज्ञानिक भाषा में धर्म बहुकोषीय संरचना है और पंथ या मजहब एक कोषीय। रिलीजन और मजहब देवदूतों से प्रकट हुए हैं। एक ईश्वर, एक देवदूत और एक पवित्र आस्था ग्रंथ। भारत में कम से कम 33 देवता। सत्य एक। देव अनेक। निरंतर वाद विवाद और संवाद के अवसर। संवाद से समाज स्वस्थ रहता है। बीमारियां अनेक होती हैं, लेकिन स्वास्थ्य बस एक ही होता है। आस्था बुरी बात नहीं। आस्था रखते हुए हमारा आचरण और व्यवहार देश-काल के अनुसार ही होना चाहिए। आस्था से भी संवाद होना चाहिए। आस्था के प्रति आस्था और आस्था से भी बहस। दुनिया के सारे विकसित समाजों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण की महत्ता है। हम 1,400 या दो-ढाई हजार वर्ष पुरानी आस्था को लेकर आदर्श समाज नहीं गढ़ सकते। बेशक वेद, कुरान, पुराण, बाईबिल, धम्मपद या गुरुगं्रथ आदरणीय हैं, लेकिन देश, काल, परिस्थिति के अनुसार आचरण अद्यतन ही होना चाहिए। 21वीं सदी के विश्व नागरिक डेढ़-दो हजार वर्ष पुरानी सामाजिक व्यवस्था में नहीं जी सकते। जीवन बैक डेट में नहीं चलता। यह प्रतिपल नया है, चुनौतियां नई, समस्याएं नई तो समाधान भी नए ही होने चाहिए।

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