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और करीब आएंगे भारत-अमेरिका

13_02_2017-12harsh_pantबीते दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से टेलीफोन पर बातचीत की। ट्रंप ने भारत को अमेरिका का ‘सच्चा साथी और साझेदार’ बताते हुए मोदी को अमेरिका आने का न्योता दिया। दोनों नेताओं ने आतंक के खिलाफ कंधे से कंधा मिलाकर काम करने की सहमति के साथ ही रक्षा एवं आर्थिक रिश्तों को मजबूत बनाने की प्रतिबद्धता जताई। मोदी दुनिया के पांचवें ऐसे नेता रहे जिन्हें ट्रंप ने राष्ट्रपति बनने के बाद फोन किया। इस मामले में मोदी को चीन और रूस सहित तमाम अन्य देशों के नेताओं पर तरजीह दी गई। बाद में मोदी ने भी ट्वीट के जरिये कहा कि द्विपक्षीय रिश्तों को और मजबूत बनाने के लिए वे मिलकर काम करेंगे। साथ ही मोदी दुनिया के उन चंद नेताओं में से भी एक रहे जिनसे पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अपने कार्यकाल के अंत में ट्रंप के शपथ ग्रहण से पहले फोन पर बातचीत की थी। दोनों नेताओं ने द्विपक्षीय रिश्तों में व्यापक प्रगति की समीक्षा की जिसमें मोदी ने दोनों देशों के सामरिक रिश्तों में मजबूती के लिए ओबामा का आभार व्यक्त किया। निवर्तमान अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा ने मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद के दो वर्षों को दोनों देशों के रिश्तों का सबसे बेहतरीन दौर बताया। दोनों देशों के रिश्तों में आई नई तेजी ओबामा की चुनिंदा सफलताओं में एक रही अन्यथा विदेश नीति के मोर्चे पर उनका प्रदर्शन ढुलमुल ही रहा। मगर आठ साल पहले जब उन्होंने शुरुआत की थी तब ओबामा का भारत को लेकर ऐसा रवैया नहीं था। असल में जॉर्ज डब्ल्यू बुश के कार्यकाल में ही भारत-अमेरिकी संबंधों में अप्रत्याशित सुधार आया जब बुश ने एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल संधि को खत्म कर दिया। वहीं भारत ने अमेरिकी मिसाइल रक्षा योजनाओं का समर्थन किया। यहां तक कि भारत ने अफगानिस्तान में ‘आतंक के खिलाफ युद्ध’ में अमेरिका को सैन्य ठिकाने देने की पेशकश भी कर दी। दोनों देशों ने 2004 में रक्षा सहयोग के नए ढांचे पर सहमति जताई। वर्ष 2005 में सामुद्रिक सहयोग समझौते पर दस्तखत किए और 2007 आते-आते भारत ने अमेरिका से अहम रक्षा उपकरण खरीदने भी शुरू कर दिए ।
इसकी परिणति भारत-अमेरिका असैन्य परमाणु ऊर्जा करार के रूप में हुई। इससे भारत को एक प्रमुख सामरिक लक्ष्य हासिल करने में मदद मिली। इससे भारत को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र का वैधानिक दर्जा मिल गया। बुश का कार्यकाल पूरा होने के बाद ओबामा प्रशासन के शुरुआती दौर में भारत-अमेरिका सामरिक साझेदारी कुछ सुस्त पड़ गई। यहां तक कि ओबामा की ताजपोशी के पहले कुछ खतरे के संकेत भी दिखने लगे थे। बतौर सीनेटर ओबामा ने परमाणु करार का विरोध किया था। साथ ही अपनी अफगानिस्तान नीति के निर्माण में वह भारत और पाकिस्तान को एक तराजू पर तौलते हुए कश्मीर को वापस एजेंडे में शामिल कर रहे थे। इसकी भारत में कड़ी आलोचना हुई। इससे भी महत्वपूर्ण क्षेत्रीय मसलों को सुलझाने के लिए ओबामा जी-2 के रूप में चीन के साथ जिस जुगलबंदी की कोशिशों को लेकर शुरुआती दौर में बेहद गंभीर थे उस पर भी भारत को कड़ी आपत्ति थी। भारत में इसे जॉर्ज डब्ल्यू बुश की सख्त चीनी नीति के उलट और अमेरिका और चीन की बढ़ती गलबहियों के रूप में देखा गया जिसने क्लिंटन प्रशासन की याद ताजा कराई जब भारत चीन और अमेरिका दोनों के बराबर निशाने पर हुआ करता था। यहां तक कि जब इसमें सुधार के लिए एशिया पर ध्यान केंद्रित करने की रणनीति बनाई गई तब भी अमेरिका और चीन की नजदीकियों को लेकर भारत की चिंता बनी रही। सामरिक अनिश्चितता और अमेरिकी ताकत में आ रही कमी के बढ़ते भाव के साथ ही गुटनिरपेक्षता की कांग्रेसी ग्रंथि भी सक्रिय हो गई। कांग्रेस में कई नेता अमेरिका के साथ पींग बढ़ाने की मनमोहन सिंह की कोशिशों से इत्तेफाक नहीं रखते थे। परमाणु करार के दौरान जब मनमोहन सिंह ने आर या पार वाली रणनीति अपना ली तो कांग्रेस के पास प्रधानमंत्री के पीछे लामबंद होने के अलावा और कोई चारा नहीं बचा था। हालांकि अपने दूसरे कार्यकाल में मनमोहन सिंह की स्थिति खासी कमजोर हो गई थी। इसमें उनकी सरकार के खिलाफ लगातार जोर पकड़ते भ्रष्टाचार के मामलों और कांग्रेस आलाकमान से बढ़ती दूरियां मुख्य रूप से जिम्मेदार थीं। ऐसे में ओबामा प्रशासन के शुरुआती दो वर्षों में मनमोहन सिंह के कमजोर नेतृत्व को देखते हुए रिश्तों को परवान चढ़ाने की कवायद फलीभूत नहीं हो पाई।
प्रधानमंत्री के रूप में मोदी की ताजपोशी वह निर्णायक क्षण था जिसकी भारत-अमेरिका रिश्तों को तेजी देने के लिए दरकार थी। प्रधानमंत्री बनने के तीन महीनों के भीतर ही मोदी ने ओबामा के साथ शिखर सम्मेलन स्तर पर वार्ता की। तमाम लोग मान रहे थे कि मोदी अतीत में अमेरिका द्वारा वीजा न दिए जाने की खुन्नस निकालेंगे, लेकिन ऐसी धारणाओं को धता बताते हुए उन्होंने अमेरिका के साथ कूटनीतिक सक्रियता बढ़ाई। मोदी ने स्पष्ट रूप से कहा कि दोनों देशों के बीच रिश्ते व्यक्तिगत व्यवहार से प्रभावित नहीं हो सकते। भारत-अमेरिकी रिश्तों को वह स्वाभाविक साझेदार के तौर पर देखते हैं। मनमोहन सिंह के माफिक ही मोदी ने भी एशियाई सामरिक परिदृश्य को भी सामरिक अनिश्चितताओं के चश्मे से ही देखा। हालांकि उनके मुताबिक यह भारत जैसे देशों के लिए अधिक जिम्मेदारी के रूप में परिणत होनी चाहिए। इसका जोर जिम्मेदारी पर है जो पिछली सरकार की रणनीति से काफी अलग है। साथ ही बीजिंग के साथ रिश्ते सुधारने की कवायद में भी मोदी ने भारत की आपत्तियां जताने से गुरेज नहीं किया है। जापान दौरे में पूर्वी और दक्षिणी चीन सागर में चीनी नीतियों पर निशाना साधते हुए मोदी ने कहा था कि कुछ देश अभी भी 19वीं सदी वाली मानसिकता और विस्तारवाद में ही जी रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के भाषण में भी उन्होंने इन सागरों में मुक्त आवाजाही पर जोर दिया।
भारत की बढ़ती शक्ति को अमेरिकी स्वीकृति का संदेश देने के अहम कदम के तौर पर राष्ट्रपति ओबामा गणतंत्र दिवस पर मुख्य अतिथि बने। उस दौरे ने दोनों देशों के बीच परमाणु करार पर परमाणु देनदारी जैसे विवादित मुद्दों को सुलझाने का काम किया। दोनों देशों ने रक्षा व्यापार एवं तकनीकी पहल यानी डीटीटीआइ के जरिये रक्षा उपकरणों के साथ में विकास और संयुक्त उत्पादन पर सहमति जताई। ओबामा के कार्यकाल के अंत तक अमेरिका ने भारत को ‘प्रमुख रक्षा साझेदार’ का दर्जा दे दिया जिससे भारत अमेरिका के बेहद करीबी सहयोगियों में शुमार हो गया। द्विपक्षीय रिश्तों से परे दोनों देश अब व्यापक क्षेत्रीय मुद्दों पर एक जैसी सोच रखते हैं। वर्ष 2015 में मोदी और ओबामा द्वारा तैयार ‘एशिया प्रशांत एवं हिंद महासागर में भारत-अमेरिका संयुक्त सामरिक दृष्टिपत्र’ क्षेत्रीय सुरक्षा में सहयोगी रवैये की दिशा में पहला बड़ा कदम है। इसमें शांति, समृद्धि और स्थायित्व सुनिश्चित करने में दुनिया के दो सबसे बड़े लोकतंत्रों की प्रतिबद्धता प्रदर्शित होती है। भारत को लेकर ओबामा खासी संतुष्टि के साथ विदा हुए होंगे। मगर इसमें मोदी का भी अहम योगदान रहा जिन्होंने भारतीय विदेश नीति में अमेरिका को इतनी अहमियत दी। ऐसे में कोई हैरानी वाली बात नहीं होगी कि ओबामा की तमाम विरासतों पर विराम लगाने से इतर ट्रंप भारत के साथ रिश्तों को मजबूत बनाने की उनकी मुहिम को नए क्षितिज पर ले जाएंगे। अगर वह इस बात को लेकर गंभीर हैं तो उन्हें मोदी के रूप में एक बढ़िया साझेदार मिलेगा।

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