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एक-दूजे को अपनाएं भाजपा-मुस्लिम

17_03_2017-16tufail_ahmadउत्तर प्रदेश के चुनाव नतीजों के बाद मुसलमानों को भारत में इस्लाम और राजनीति को लेकर अपनी समझ पर फिर से मंथन करना चाहिए। चुनावों के दौरान मैंने अलीगढ़, बरेली से लेकर लखनऊ और आजमगढ़ जैसे शहरों के मुस्लिम बहुल इलाकों का दौरा किया। वहां मुसलमानों से जुड़े नए रुझानों से मेरा सामना हुआ। लखनऊ में शिया मुसलमानों की अच्छी-खासी तादाद है। वहां मुझे महसूस हुआ कि जहां मुस्लिम खुद को ‘अल्पसंख्यक’ राजनीति में खींचकर पिछड़ेपन के लिए सरकारों को कसूरवार ठहराते हैं वहीं शिया मुसलमानों के एक छोटे तबके का वजूद है जो शिक्षा में बेहतर कर रहा है।
जैन, सिख और पारसी जैसे अल्पसंख्यकों की तरह शिया मुसलमान अल्पसंख्यक राजनीति या पीड़ित होने के भाव से ग्रस्त नहीं हैं। आर्थिक एवं शैक्षिक मोर्चों पर सुन्नियों की तुलना में शिया मुसलमान बेहतर स्थिति में हैं। इसका अर्थ है कि भारत में अल्पसंख्यकवाद मुख्य रूप से सुन्नी मुसलमानों तक ही सीमित है। 1857 में मुगल साम्राज्य के पतन के बाद सुन्नी मुसलमानों ने ब्रिटिश सरकार और आजादी के बाद की भारत सरकारों को दुश्मन के तौर पर ही देखा है। भारत में लगभग एक हजार वर्षों तक सत्ता में रहने के बाद सुन्नी मुसलमानों के लिए अब अल्पसंख्यक के तौर पर रहना पच नहीं रहा है।
चूंकि भारत का विभाजन इस्लाम के नाम पर हुआ इसलिए मुसलमानों को अभी तक यह सीखना बाकी है कि अल्पसंख्यक के तौर पर कैसे रहा जाता है? हिंदुओं के साथ सह-अस्तित्व तलाशना उनके लिए मुश्किल हो रहा है। शायद यह सुन्नी मुसलमानों के गले उतरना मुश्किल हो सकता है कि भाजपा अब केवल हिंदुओं की पार्टी नहीं रह गई है। उसे नगालैंड से कश्मीर तक भारी तादाद में भारतीयों के वोट मिल रहे हैं, लेकिन मुसलमान उसे अभी भी हिंदू पार्टी ही मानते हैं। भाजपा नेता हृदय नारायण दीक्षित ने मुझे बताया कि 1947 से पहले तो मुसलमान कांग्रेस को हिंदू पार्टी और मुस्लिम लीग को मुसलमानों की पार्टी मानते थे। उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों में सपा, कांग्रेस और बसपा व्यावहारिक तौर पर मौजूदा दौर की मुस्लिम लीग बन गईं। ये पार्टियां सभी भारतीयों के समग्र विकास के बजाय मुस्लिम वोटबैंक के बारे में ही सोचती हैं। धर्मनिरपेक्षता और अल्पसंख्यक राजनीति के नाम पर वे अपने चुनावी एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए मुसलमानों का इस्तेमाल करती हैं। चुनावों से पहले मुस्लिम मतदाताओं को लुभाने के लिए जहां राहुल देवबंद के दारुल उलूम और लखनऊ के नदवातुल उलमा की देहरी तक गए वहीं मायावती की रैलियों की शुरुआत कुरान की आयतों से होने लगी।
जब तक मुसलमान कुछ पार्टियों को अपना दुश्मन मानना बंद नहीं करेंगे तब तक राजनीतिक तौर पर उनका इस्तेमाल जारी रहेगा। नदवातुल उलमा के मौलाना सलमान नदवी और मौलाना सईद-उर रहमान, लखनऊ के फिरंगी महल मदरसा के मौलाना खालिद रशीद और राष्ट्रीय उलमा काउंसिल के मौलाना आमिर रशीद के अलावा शिया धार्मिक नेता कल्बे जव्वाद और कल्बे सादिक ने सपा या बसपा का ही समर्थन किया। उत्तर प्रदेश में कुछ मुस्लिम महिलाओं ने भी भाजपा को वोट दिया, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने तीन तलाक जैसी कुप्रथा के खिलाफ आवाज उठाई। वास्तव में यह समकालीन दौर में मुस्लिम समाज की बड़ी बुराई के तौर पर सामने आई है। देश भर में तमाम महिलाएं इसका खामियाजा भुगत रही हैं। ऐसा भी देखने में आया कि कुछ मुस्लिम परिवारों ने महिलाओं को मतदान के लिए नहीं जाने दिया, क्योंकि उन्हें यह डर सता रहा था कि वे भाजपा को वोट दे सकती हैं। गुजरात और असम में मुसलमानों ने भाजपा को वोट दिए। शिया मुसलमान भी भाजपा को वोट देते हैं। बाकी मुसलमानों को यह समझना चाहिए कि भाजपा इसी देश की ही पार्टी है
चुनाव के दौरान एक खास रुझान यह दिखा कि जो शिक्षित युवा मुस्लिम उर्दू अखबार नहीं पढ़ते वे पूछते थे कि भाजपा क्यों नहीं? कुछ इलाकों में कुछ मुसलमान भाजपा को वोट देते हैं, लेकिन सार्वजनिक तौर पर ऐसा कहने से बचते हैं, क्योंकि उन्हें समुदाय के बीच अपमानित किया जा सकता है। शिक्षित युवा मुसलमान इस्लामिक धर्मगुरुओं की बात नहीं मानता। हालांकि बड़ी तादाद में आम मुसलमान अभी भी उन इस्लामिक धर्मगुरुओं को मानते हैं जो दरगाहों और मदरसों से जुड़े हैं। लखनऊ के नदवातुल उलमा में एक मौलवी ने मुझे बताया कि मुश्किल से चार प्रतिशत मुसलमान ही मदरसों में पढ़ते हैं। मैने उनसे कहा कि मदरसों से निकले ये चार प्रतिशत छात्र ही बाकी के 96 प्रतिशत मुसलमानों पर राज करते हैं। आजमगढ़ जिले में बड़े-बड़े मदरसे हैं। इनमें से कोई भी मदरसा मुसलमानों में आ रहे बदलाव को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं।
दौरे के दौरान मुझे यह भी समझ आया कि जब मुसलमान अपने पुराने रिकॉर्ड से तुलना करते हैं तो वे शैक्षिक क्षेत्र में कुछ तरक्की करते दिखते हैं। मुसलमानों द्वारा नए स्कूल और कॉलेज खोले जा रहे हैं। हालांकि अन्य समुदायों से तुलना करने पर मुसलमान कई दशक पिछड़े दिखते हैं। इसकी वजह मुस्लिम मानस पर मदरसों का हावी होना है। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के लाइब्रेरियन ने मुझे बताया कि नई किताबों को लेकर मुसलमान छात्रों की तुलना में हिंदू छात्रों में ज्यादा उत्सुकता देखने को मिलती है। आजमगढ़ के शिबली कॉलेज में भी ऐसा ही देखने को मिला। वहां प्रोफेसरों ने मुझे बताया कि अपनी पढ़ाई और कक्षा में समय से उपस्थिति को लेकर मुस्लिम छात्रों की तुलना में हिंदू छात्र कहीं ज्यादा संजीदा हैं। शिबली अकादमी जो मुख्य रूप से उर्दू पुस्तकालय ही है, वहां हिंदू छात्र पढ़ने के लिए ज्यादा सलाह लेने आते हैं जबकि मुस्लिम छात्र वहां जाना गवारा नहीं करते। एक लेक्चरर ने भी मुझे बताया कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मुस्लिम छात्रावासों के छात्रों में पढ़ाई को लेकर खास दिलचस्पी नहीं दिखती और वे ऐसे ही घर लौट रहे हैं, जबकि हिंदू छात्र सर्वांगीण विकास की ओर उन्मुख हैं। इसकी बड़ी वजह वही फितूर है जो सुन्नी मुस्लिम नेताओं ने भारतीय मुसलमानों के दिमाग में भरा है कि कुछ पार्टियां और सरकार उनकी दुश्मन हैं। यही कारण है कि मुस्लिम हिंदुओं के साथ घुलने-मिलने और पड़ोसियों से सीखने में कतराते हैं। इस्लामिक धर्मगुरु उन्हें सिखाते हैं कि वे हिंदुओं से अलग जीवनशैली जिएं। अगर मुसलमान तरक्की करना चाहते हैं तो उन्हें इस सोच से मुक्त होना होगा। दुनिया में भारत जैसा कोई और मुल्क नहीं जो मुसलमानों को इतने बेहतर शैक्षिक, आर्थिक अवसर और राजनीतिक आजादी देता हो।
उत्तर प्रदेश में एक भी मुसलमान उम्मीदवार न उतारकर भाजपा ने ठीक ही किया, क्योंकि वे हार जाते, मगर अब जब भाजपा अखिल भारतीय पार्टी बनी है तो उसे भी यह समझना चाहिए कि मुसलमानों को भी अपने साथ लेना जरूरी है। भाजपा को मुस्लिम नेताओं विशेषकर महिला नेताओं को जोड़ने की जरूरत है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस पर कुछ ठोस विचार किया है। उसने यही निष्कर्ष निकाला कि मुसलमानों को पीछे नहीं छोड़ा जा सकता। लिहाजा आरएसएस ने मुस्लिम राष्ट्रीय मंच बनाया। भाजपा को भी संघ से सीखने की जरूरत है। सुन्नी मुसलमानों और भाजपा को एक-दूसरे को अपनाना चाहिए।

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