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एक और करिश्माई कामयाबी

12_03_2017-11sanjay_guptaराजनीतिक दृष्टि से देश के सबसे महत्वपूर्ण राज्य उत्तर प्रदेश और उसके साथ ही उत्तराखंड के नतीजों ने इस पर नए सिरे से मुहर लगा दी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है। उत्तर प्रदेश में भाजपा को जो अभूतपूर्व और चकित कर देने वाली कामयाबी मिली उसकी कल्पना संभवत: खुद भाजपा ने भी नहीं की होगी। गोवा और मणिपुर में अपेक्षित कामयाबी न मिलने के बावजूद उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भाजपा की जीत मोदी पर जनता के बढ़ते भरोसे का प्रमाण तो है ही, एक कुशल चुनावी रणनीतिकार के रूप में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की क्षमता साबित करने वाली भी है। अमित शाह ने इन दोनों राज्यों में जो बिसात बिछाई उसे लगता है कि विपक्षी दल समझ ही नहीं सके। नवंबर में नोटबंदी के ऐतिहासिक फैसले के असर को लेकर भाजपा नेतृत्व के मन में कुछ न कुछ शंकाएं अवश्य रही होंगी, लेकिन वे लगातार दूर होती चली गईं। कई राज्यों के निकाय चुनावों में भाजपा को जीत मिली, लेकिन विपक्ष नोटबंदी के फैसले को गलत ही बताता रहा।
इन चुनावों को नोटबंदी पर जनमत संग्रह के रूप में देखा जा रहा था। मोदी और अमित शाह इसके प्रति पूरी तरह आश्वस्त थे कि जनता ने इस फैसले को कुछ कठिनाइयों के बावजूद मन से स्वीकार किया है। पता नहीं विपक्ष जनता के मन को क्यों नहीं समझ सका? भाजपा ने उत्तर प्रदेश में तीन सौ से अधिक और उत्तराखंड में 55 से ज्यादा सीटें हासिल कर यह जता दिया कि विपक्ष ने नोटबंदी को मुद्दा बनाकर गलत किया। यह दिख रहा कि नोटबंदी के फैसले के जरिये भाजपा ने उस गरीब तबके तक भी अपनी पहुंच बनाई जो उसका प्रतिबद्ध समर्थक नहीं था। नोटबंदी ने गरीबों को यह अहसास कराया कि यह सरकार दो नंबर का कारोबार करने वालों पर अंकुश लगाने और निर्धन-वंचित आबादी का हित करने के लिए प्रतिबद्ध है। जाहिर है कि अब भाजपा के संदर्भ में इस धारणा के लिए कोई स्थान नहीं कि उसका मुख्य जनाधार शहरी इलाकों में है। मोदी नोटबंदी के बाद और उसके पहले भी लोगों को लगातार यह चेतावनी देते रहे कि जो लोग कालेधन का कारोबार कर रहे वे बाज आएं। हालांकि ऐसी चेतावनी पहले भी दी जाती थी, लेकिन आम तौर पर उन्हें कोरी बयानबाजी ही माना जाता था। पहली बार जब चेतावनी के अनुरूप फैसले लिए गए तो जनता को यह अहसास हुआ कि जैसा कहा जा रहा वैसा किया भी जा रहा।
चूंकि आम जनता नोटबंदी के फैसले से सहमत थी इसलिए विपक्षी दलों ने जब इस मसले पर मोदी सरकार को घेरने की कोशिश की तो उन्हें जनता का साथ नहीं मिला। यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि भाजपा की प्रचंड जीत में दलित-पिछड़े तबके के वोटों का भी योगदान रहा। यह भी संभव है कि मुस्लिम बहुल सीटों में भाजपा की जीत में थोड़ा-बहुत योगदान मुस्लिम महिलाओं का भी रहा हो, जो तीन तलाक के मसले पर उद्वेलित हैं। अगर ऐसा हुआ तो यह बड़ी बात है। चुनाव प्रचार के दौरान यह बार-बार कहा जा रहा था कि भाजपा जिस तरह मुख्यमंत्री के चेहरे के बिना चुनावी मैदान में उतरी है उसका उसे नुकसान उठाना पड़ेगा, लेकिन ऐसा कुछ भी नही हुआ। भाजपा ने 2014 के बाद से ज्यादातर अवसरों पर मोदी के चेहरे को आगे करके ही चुनाव लड़ा और इसका उसे फायदा भी मिला है। इस बार भी ऐसा ही हुआ।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के नतीजे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के लिए एक बड़ी नसीहत लेकर आए हैं और वह यही है कि वह अपने राजनीतिक तौर-तरीके बदलें। एक के बाद एक चुनाव में असफलता के चलते राहुल कांग्रेस कार्यकर्ताओं का भरोसा लगभग खो चुके हैं। सवाल है कि क्या कार्यकर्ता और नेता अब भी शांत रहकर कांग्रेस को गर्त में जाते देखते रहेंगे? आश्चर्य नहीं कि आने वाले दिनों में कांग्रेस में बड़ी उथलपुथल देखने को मिले। हालांकि कुछ नेता अभी भी राहुल की चाटुकारिता कर सकते हैं, लेकिन इससे पार्टी और अधिक कमजोर ही होगी। कांग्रेस की नाकामी का एक बड़ा कारण यह है कि राहुल जमीनी हकीकत समझने से इंकार कर रहे हैं। एक समस्या यह भी है कि उनकी छत्रछाया में कांग्रेस को आगे ले जाने की क्षमता वाला कोई अन्य नेता पनप नहीं पा रहा। कांग्रेस कार्यकर्ताओं को प्रियंका से उम्मीद है कि वह पार्टी का उद्धार कर सकती हैं, लेकिन उनकी ओर से बार-बार जो हिचक दिखाई जा रही उससे कार्यकर्ता हतोत्साहित हो रहे हैं। प्रियंका इस बार भी जिस तरह अमेठी का संक्षिप्त दौरा कर लौट गईं उससे यही संकेत मिला कि या तो वह हवा रुख भांप गईं या फिर राहुल उन्हें सीमित भूमिका में रखना चाह रहे हैं। शायद इसीलिए सोनिया गांधी भी प्रियंका को आगे नहीं करना चाह रही हैं।
राहुल की तरह मुश्किलों का सामना अखिलेश को भी करना पड़ सकता है, क्योंकि उन्होंने पिता और चाचा को जिस तरह किनारे किया उसकी चुनाव प्रचार के दौरान चर्चा होती रही। अखिलेश को चुनाव के ठीक पहले पार्टी और परिवार में झगड़े का नुकसान उठाना पड़ा। यह भी दिख रहा कि सपा समर्थकों को अखिलेश का राहुल से हाथ मिलाना भी रास नहीं आया। करारी हार के बावजूद जहां अखिलेश को पार्टी में चुनौती देने वाला कोई नहीं दिख रहा वहीं राहुल को कांग्र्रेस के अंदर से चुनौती मिल सकती है। उत्तर प्रदेश के बाद राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण राज्य पंजाब में आम आदमी पार्टी के संदर्भ में प्रारंभ में ऐसी खबरें थीं कि वह दिल्ली के बाद इस राज्य में कमाल करने जा रही है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उसने जिस तरह की राजनीति का सहारा लिया उससे वह लोगों को यह भरोसा नहीं दिला सकी कि वह इस अहम राज्य में एक अच्छी सरकार दे सकती है।

पंजाब में कांग्रेस को एक आसान जीत मिली। यह जीत पूरी तौर पर अमरिंदर सिंह की है। हो सकता है कि पंजाब की जीत को कांग्रेस आलाकमान बढ़-चढ़कर प्रचारित करे, लेकिन सभी जानते हैं कि इस जीत में सोनिया-राहुल की कोई खास भूमिका नहीं। जनता ने अमरिंदर सिंह को भावी मुख्यमंत्री मानकर कांग्रेस को वोट दिया। यहां दस वर्षों से सत्तारूढ़ अकाली दल-भाजपा को पता था कि इस बार जनता परिवर्तन के मूड में है। यह भी लगता है कि आम आदमी पार्टी के रंग-ढंग से इस सीमावर्ती राज्य के लोगों के मन में सुरक्षा संबंधी चिंताएं भी खड़ी हो गईं। हैरत नहीं कि अकाली दल के कुछ समर्थकों ने कांग्रेस की जीत में मदद की हो। जो भी हो, नतीजों ने यह साबित किया कि पंजाब की राजनीति आगे भी बादल और अमरिंदर के परिवार के बीच केंद्रित रहेगी। उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की जनता ने यह जो भरोसा किया कि मोदी की जीत विकास का वाहक बनेगी उस पर भाजपा को खरा उतरना होगा। वैसे भी भाजपा की जीत का एक मतलब यह है कि लंबे समय बाद ये दोनों राज्य केंद्र में सत्तारूढ़ दल द्वारा शासित होंगे। इसका लाभ दोनों राज्यों को मिलना चाहिए। यह भाजपा नेतृत्व की जिम्मेदारी है कि वह इन दोनों राज्यों की जनता की उम्मीदों पर खरा उतरे।

 

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