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आलेख : यूपी में बनते-बिगड़ते समीकरण

राष्ट्रीय राजनीति प्रश्नाकुल है। उत्तर प्रदेश प्रश्न प्रदेश बन गया है। विधानसभा चुनाव सामने हैं। इन चुनावों के दो बरस बाद 2019 में लोकसभा चुनाव होंगे। दिल्ली की सियासी राह उत्तर प्रदेश से होकर गुजरती है। प्रश्नों व चुनौतियों के अंबार हैं। सत्तारूढ़ समाजवादी पार्टी घरेलू कलह की शिकार है। मुलायम सिंह के सामने अस्तित्व का प्रश्न है और मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह के सामने भविष्य की राजनीति और कॅरियर की चुनौती। मुख्यमंत्री रथयात्रा पर निकले, रथ बिगड़ गया, तो भी वे सरकार की उपलब्धियां बताएंगे। राष्ट्रीय दल कांग्रेस की हालत पुरातात्विक सामग्री जैसी है। कांग्रेस ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री का दावेदार घोषित किया और अभिनेता नेता राजबब्बर को प्रदेश अध्यक्ष, लेकिन दोनों प्रभावहीन रहे। राहुल की खाट सभा का भी प्रभाव नहीं पड़ा। रीता बहुगुणा केसरिया हो गईं। रालोद के खंडहर शेष हैं। खिलाड़ी होने का दावा उसका भी है। बहुजन समाज पार्टी के बड़े नेता स्वामी प्रसाद भाजपा में गए। आरके चौधरी भी अलग हो गए। दावा है कि बसपा का वोट बैंक पक्का रहता है, पर लोकसभा चुनाव में पार्टी का खाता नहीं खुला। भाजपा के कार्यकर्ता बूथ प्रबंधन सहित तमाम चुनाव तैयारियों में संलग्न हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों में भीड़ उमड़ रही है। परिवर्तन यात्राओं से राज्य का कोना-कोना मथने की तैयारी है, लेकिन मुख्यमंत्री के चेहरे का अभाव है। टिकट घोषणा में देरी के प्रश्न भी उठ रहे हैं।rahul_akhilesh_04_11_2016

उत्तर प्रदेश की सियासी तस्वीर स्थायी नहीं है। लगभग तीन महीने पहले बसपा को ताकतवर बताया जा रहा था। फिर बसपा में भगदड़ मची। जनता में बसपा के कमजोर हो जाने का संदेश गया। दलबदल भाजपा के पक्ष में हुए। भाजपा के शुभचिंतक स्वाभाविक ही उत्साहित हुए। इसी बीच सैनिकों ने पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में घुसकर आतंकी मारे, आतंकी नेटवर्क भी ध्वस्त हुआ। देश के गांव, गली में मोदी सरकार की प्रशंसा हुई। भाजपा को दोबारा बढ़त मिली। सपा भाजपा से अपनी टक्कर बता ही रही थी कि सपा की अंदरूनी कलह सड़क पर आ गई। सपा प्रदेशाध्यक्ष शिवपाल ने मुख्यमंत्री के करीबी युवा नेताओं के विरुद्ध सर्जिकल स्ट्राइक की। वे पार्टी से बाहर किए गए। मुख्यमंत्री ने जवाबी कार्रवाई की। शिवपाल सहित कई मंत्री भूतपूर्व हो गए। सपा का चुनावी खेल गड़बड़ाया। राहुल गांधी खाट सभा के जरिए लड़ाई का धु्रव बनने की कोशिश में थे। कांग्रेसी कार्यकर्ता खटिया ही उठा ले गए। हर घटना से तस्वीर बदली। चुनावी हवा का मिजाज बदला। ये अलग बात है कि खाट उठाने या सपाई अंतर्कलह ने मनोरंजन ज्यादा किया, सियासी प्रभाव कम डाले।

उत्तर प्रदेश में प्रश्न ढेर सारे। सर्वसमावेशी विकास के, प्रशासनिक राजनीतिकरण के, भ्रष्टाचार और नौकरियों की बिक्री के। ऐसे तमाम सवाल लंबे अर्से से उत्तर खोज रहे हैं, पर गैर-भाजपा दलों ने भाजपा को सत्ता से रोकना ही सबसे बड़ी चुनौती माना है। इनकी मानें तो भाजपा ही प्रदेश की मूल समस्या है। सो बिहार की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में भी महागठबंधन की कोशिशें प्रारंभ हो गई हैं। यहां गठबंधन बने या ना बने, लेकिन इस गठबंधन के प्रभाव में बिहारी गठबंधन में दूरियों के संकेत हैं। राजद यूपी में गठबंधन का पक्षधर है, लेकिन नीतीश तय नहीं हैं। यूपी में नीतीश की हालत वैसी ही है, जैसी बिहार में सपा की थी। नीतीश की यहां कोई उपस्थिति नहीं। फिर यूपी और बिहार का राजनीतिक विभाजन एक जैसा नहीं है। बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार मिल गए। इसी सामाजिक आधार के एकजुट होने और कांग्रेस के जुड़ने से भाजपा हार गई। बिहार में गठबंधन और भाजपा की टक्कर आमने-सामने थी। यूपी में गठबंधन बन भी जाता है तो गठबंधन की टक्कर दो दलों- बसपा व भाजपा से होगी। बिहार में तीसरा खिलाड़ी नहीं था। यहां तीसरे खिलाड़ी के रूप में बसपा है। यूपी और बिहार में फर्क करना चाहिए। लेकिन पेंच और भी हैं

गठबंधन बुरी बात नहीं है, लेकिन गठबंधन लिए नीति और कार्यक्रम की घोषणा भी जरूरी होती है। यूपी के लिए प्रस्तावित गठबंधन का कोई कार्यक्रम नहीं है। केभाजपा को सत्ता में आने से रोकना ही एकमात्र लक्ष्य है। तो भी गठबंधन की बात चल निकली है। कांग्रेस के प्रचार विशेषज्ञ प्रशांत किशोर ने मुलायम सिंह से भेंट की है। शिवपाल ने भी रालोद सहित कई फुटकर दलों से संपर्क साधा है। पहला पेंच सार्वजनिक है कि महागठबंधन के प्रयासों के बारे में मुख्यमंत्री अखिलेश को जानकारी नहीं। दूसरा पेंच है कि कांग्रेस ने ’27 साल, यूपी बेहाल” का नारा दिया है। इसी 27 साल में सपा सरकारों का शासन भी रहा है। क्या महागठबंधन से जुड़ने के बाद कांग्रेस यह नारा वापस लेगी? शीला दीक्षित मुख्यमंत्री की कांग्रेसी प्रत्याशी हैं। क्या कांग्रेस अपने इस ब्राह्मण, अनुभवी चेहरे की उम्मीदवारी भी वापस लेगी?

भारत का जनमानस स्वभावत: राजनीतिक नहीं है। सामान्य व्यक्ति इस या उस दल का प्रतिबद्ध मतदाता नहीं होता। वह चुनाव के समय निर्णय लेता है। इसीलिए चुनाव अभियान की भूमिका है। बसपा में आउटगोइंग और भाजपा में इनकमिंग फ्री है। दोनों दलों के कार्यकर्ताओं पर दलबदल का मिलाजुला प्रभाव पड़ा है। तो भी माहौल भाजपा के अनुकूल है। केंद्र की मोदी सरकार के साथ ही भाजपा की राज्य सरकारों का काम सराहा जा रहा है। भाजपा को अतिपिछड़ों के आरक्षण के पुराने फॉर्मूले पर ध्यान देना चाहिए। तत्कालीन मुख्यमंत्री राजनाथ सिंह ने इस दिशा में जो काम किया था, उसे बढ़ाने की जरूरत है। अनुसूचित जातियों को बसपा के लिए नहीं छोड़ना चाहिए। सपा को अपना घर ठीक करना चाहिए। कोई भी दल अपनी युवा टीम को युद्ध के समय अलग नहीं रखता। सपा को सांप्रदायिक वोट बैंक का मोह छोड़ देना चाहिए। दुनिया 21वीं सदी में है। सपा की राजनीति मध्यकाल की है।

शून्य का शून्य से जोड़-घटाना या गुणा-भाग शून्य ही होता है। कांग्रेस को रालोद से जोड़ो यागुणा करो तो क्या मिलेगा? मुलायम सिंह बड़ी चुनौती का सामना कर रहे हैं। महागठबंधन के विचार का संदेश पराजयवादी है कि सपा जैसी ताकतवर पार्टी बिना लड़े ही हार गई है। यूपी में हरेक घटना नए समीकरण लाती है। वातावरण भाजपा के पक्ष में है। मायावती की रैलियों में भी भीड़ रहती है। मूलभूत प्रश्न है कि क्या महागठबंधन केवल भाजपा को ही सत्ता में आने से रोकने के लिए बनाया जा रहा है? क्या यह बसपा को भी चुनाव हराने की कोई रणनीति बना रहा है? अगर नहीं तो अमित शाह के आरोप में दम है कि दोनों में समझौता है। संप्रति रोज बनते-बिगड़ते समीकरणों के बीच भविष्यवाणी मुश्किल है। राज्य की जनता का ध्यान चुनाव रथ नहीं परिवर्तनशील कालरथ की गति पर है। दिनकर की कविता याद आती है – दो राह, समय के रथ का घर्घर नाद सुनो/सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

 

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