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अराजकता का खुला-छिपा रूप

05_03_2017-4sanjay_guptaदिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में छात्रों के दो गुटों में टकराव के बाद अभिव्यक्ति की आजादी पर नए सिरे से छिड़ी बहस शांत होने का नाम नहीं ले रही है। इस बहस के केंद्र में वही पुराना सवाल है कि अभिव्यक्ति की आजादी की सीमा कहां तक है और क्या उसके तहत देश की अखंडता और संप्रभुता को चोट पहुंचाने वाली नारेबाजी भी हो सकती है? पिछली बार यह बहस तब छिड़ी थी जब जेएनयू में कश्मीर की आजादी के नारे लगे थे और साथ ही आतंकी अफजल गुरु की फांसी का विरोध करते हुए मोदी सरकार को निशाने पर लिया गया था। तब भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और वामपंथी छात्र संगठन एक-दूसरे के आमने-सामने आ गए थे। तब कन्हैया कुमार, अनिर्बान और उमर खालिद समेत कई छात्रों को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार भी किया गया था।

रामजस कॉलेज में इसी उमर खालिद को वक्ता के तौर पर बुलाया गया था। इसकी खबर मिलते ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के छात्रों ने इतने उग्र रूप में विरोध किया कि पहले खालिद के आमंत्रण को रद किया गया और बाद में पूरे कार्यक्रम को ही। कार्यक्रम रद होने से खफा वामपंथी छात्र संगठनों ने कॉलेज परिसर में बस्तर और मणिपुर की आजादी के नारे लगाए। अगले दिन दोनों पक्षों के छात्रों में भिड़ंत हुई और मारपीट भी। जब इस भिड़ंत के लिए अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को दोषी बताते हुए दिल्ली विश्वविद्यालय की एक छात्रा गुरमेहर कौर ने सोशल मीडिया के जरिये यह कहा कि वह इस परिषद से डरती नहीं तो उसका एक साल पुराना वह वीडियो वायरल हो गया जिसमें उसकी ओर से यह कहा गया था कि कश्मीर में शहीद उसके पिता को पाकिस्तान ने नहीं, बल्कि युद्ध ने मारा था। इस वीडियो का मौजूदा मामले से कोई लेना-देना नहीं था पर उसमें गुरमेहर का पाकिस्तान संबंधी जो संदेश था उससे तमाम लोगों ने असहमति जताई। कुछ ने तो अभद्रता भी की। किरण रिजिजु के अलावा वीरेंद्र सहवाग, योगेश्वर दत्त और फोगट बहनों ने भी गुरमेहर से असहमति जताई। इनकी असहमति पर कई लोगों ने आपत्ति जताई। हालांकि इनमें से सहवाग समेत अन्य लोगों ने बाद में अपना स्पष्टीकरण भी दिया लेकिन तब तक बहस के केंद्र में गुरमेहर कौर आ गई थी। इस बहस में राष्ट्रपति ने भी यह कह कर हस्तक्षेप किया कि असहिष्णु लोगों के लिए देश में कोई स्थान नहीं हो सकता, लेकिन तार्किक असहमति के लिए अवश्य स्थान होना चाहिए। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि विश्वविद्यालयों में तार्किक चर्चा की जरूरत है, लेकिन बहस के नाम पर अशांति नहीं फैलाई जानी चाहिए। उन्होंने देश को सर्वोपरि रखने की भी नसीहत दी।भाजपा और उसके समर्थकों के साथ तमाम बुद्धिजीवी भी देश की अखंडता को चुनौती देने वाली बातों को अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा मानने को तैयार नहीं, लेकिन वामपंथी रुझान वाले दलों के नेता और बुद्धिजीवी यह कहने की कोशिश में जुटे हैं कि कश्मीर, मणिपुर आदि की आजादी के नारे अभिव्यक्ति की आजादी का हिस्सा बन सकते हैं। जबकि संविधान में अभिव्यक्ति की आजादी का जो प्रावधान है उसमें यह स्पष्ट किया गया है कि इस आजादी के तहत ऐसा काम न हो जिससे देश की अखंडता और संप्रभुता के लिए खतरा पैदा हो।
देश में जो लोग जम्मू-कश्मीर के विलय को लेकर सवाल खड़े करते रहते हैं वे यह तर्क देते हैं कि विलय के बावजूद कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का सवाल सुलझना शेष है। इस पर कश्मीर के राजनीतिक दल बेपेंदी के लोटे की तरह अपना रुख बदलते रहते हैं। जब वे सत्ता में होते हैं तो सभी समस्याओं का समाधान भारतीय संविधान के तहत खोजने की बात करते हैं, लेकिन विपक्ष में आने पर कश्मीर के राजनीतिक समाधान की बात करने लगते हैं। वे पाकिस्तान से बात करना भी जरूरी बताने लगते हैं। इससे ही कश्मीर की जनता को विरोधाभासी संदेश जाता है। कश्मीरी अलगाववादी कश्मीर की आजादी के सवाल को देश-दुनिया के हर मंच पर उठाने को आतुर रहते हैं। वामपंथी विचारधारा के गढ़ जेएनयू में इस सवाल को कुछ ज्यादा ही प्राथमिकता दी जाती है। वहां के शिक्षक और छात्रों को एक समूह ऐसा है जो कश्मीर पर भारत के दावे को कमजोर बताने की कोशिश करता रहता है। अब तो वह मणिपुर, नगालैंड के बारे में भी ऐसी कोशिश करता दिख रहा है। इनका एजेंडा उन अलगाववादियों जैसा है जो पाकिस्तान से हर तरह का सहयोग और समर्थन पाते हैं। चूंकि कश्मीर की आजादी का सवाल पूरी तौर पर पाकिस्तान प्रेरित है इसलिए उसका विरोध हर स्तर पर किया ही जाना चाहिए, ठीक वैसे ही जैसे बाहरी ताकतों से प्रेरित हो रहे नक्सलियों का विरोध जरूरी है।
हालांकि मुख्यधारा के सभी दल यह कहते हैं कि कश्मीर की आजादी की मांग एक बेतुकी मांग है, लेकिन उनमें से कुछ संकीर्ण राजनीतिक कारणों से इस मांग के समर्थकों को प्रोत्साहित भी करते हैं। यह सही है कि कश्मीर घाटी में आजादी की मांग होती रहती है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि देश के अन्य हिस्सों में भी ऐसी ही मांग करने की रियायत दे दी जाए। ऐसी मांग करने वाले भारतीय संविधान को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं। इस मामले में कश्मीर एवं पूर्वोत्तर के अलगाववादी और नक्सली एक जैसे हैं। ध्यान रहे कि कश्मीर की आजादी की मांग करने वालों ने ही रामजस कालेज में बस्तर की आजादी के नारे लगाए। जेएनयू में भी मणिपुर की आजादी के नारे लगे थे। स्पष्ट है कि अलगाववादियों और नक्सलियों के समर्थक एकजुट हो रहे हैं। ऐसे तत्व एक ओर संविधान को नहीं मानते और दूसरी ओर अभिव्यक्ति की आजादी के बहाने देश की अखंडता को चोट पहुंचाने वाली नारेबाजी करने का अधिकार चाहते हैं। संविधान को खारिज करने वाले अलगाववादियों और नक्सलियों के समर्थकों को विश्वविद्यालयों में अपनी गतिविधियां मनमाने ढंग से जारी रखने की इजाजत देना समझदारी नहीं। ऐसे तत्वों से सावधान रहने की आवश्यकता है, क्योंकि उनकी ओर से प्रकट रूप में भले ही यह दिखाया जाता हो कि वे तो बस मोदी सरकार के एजेंडे के विरोधी हैं, लेकिन सच यही है कि वे देश की एकता के विरोधी हैं। विडंबना यह है कि कांग्र्रेस और अन्य दल भाजपा विरोधी ताकतों को मजबूती देने के फेर में यह देखना तक बंद कर देते हैं कि वे कैसे तत्वों को प्रोत्साहित कर रहे हैं? भाजपा विरोधी दल मोदी सरकार का विरोध करने में किस तरह हद पार कर जाते हैं, इसका पता इससे चलता है कि अभी हाल में वे पत्थरबाजों की हिमायत करते और सेना को कोसते दिख रहे थे। इसके पहले मनमोहन सरकार के समय वे नक्सल विरोधी अभियान पर आपत्ति जताते थे।
अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में विश्वविद्यालयों में देश विरोधी तत्वों को बल देने की जो शातिर कोशिश हो रही है उससे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को सावधान रहने की तो जरूरत है, लेकिन सावधानी के नाम पर उग्र्रता दिखाने का कोई मतलब नहीं। विरोध अराजकता में बदल जाए तो वह अपना औचित्य खो देता है। आखिर रामजस कालेज में उमर खालिद का विरोध मर्यादित तरीके से क्यों नहीं किया गया? सवाल यह भी है कि गुरमेहर से विनम्र तरीके से असहमति क्यों नहीं दर्ज कराई गई? जैसे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर अराजकता स्वीकार नहीं हो सकती वैसे ही इस आजादी का गलत इस्तेमाल करने वालों से असहमति जताने के बहाने अराजकता का भी समर्थन नहीं किया जा सकता।

 

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